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(३५) कर्म की थियरी
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हुआ हेल्प नहीं करता। इसलिए बेटा क्या करता है? मन में नक्की करता है कि, 'भले ही बोलते रहे। मैं तो ऐसा ही करूँगा।' तो इस बेटे को माँबाप और अधिक चोर बनाते हैं। द्वापर और त्रेता और सत्युग में जो हथियार थे उनका आज कलियुग में लोग उपयोग करने लगे हैं। बेटे को बदलने का तरीका अलग है। उसके भाव बदलने हैं। उस पर प्रेम से हाथ फेरकर कहना कि, 'आ बेटे, भले ही तेरी माँ चिल्लाए, वह चिल्लाए, पर तू इस तरह किसीकी चोरी करे वैसे कोई तेरी जेब में से चोरी करे तो तुझे सुख लगेगा? उस समझ तुझे अंदर कैसा दुःख होगा? वैसे ही सामनेवाले को भी दुःख नहीं होगा? इस तरह पूरी थियरी बेटे को समझानी पड़ेगी। एक बार उसके अंदर ऐसा बैठ जाना चाहिए कि यह गलत है। आप उसे मारते हो, तो उससे तो बेटा हठ करेगा। सिर्फ तरीका ही बदलना है।
यह तो बाप थानेदार जैसा होता है, घर में पत्नी हँस नहीं सकती, बच्चे हँस नहीं सकते, मुँह नहीं खोल सकते। इतना अधिक तो उसका दबदबा होता है। ऐसा दबदबा होता होगा? हम कोई बाघ या सिंह हैं? हमारा दबदबा नहीं होना चाहिए। एक आँख में रौब होना चाहिए और दूसरी आँख से प्रेम करना चाहिए। रौब इसलिए कि वे उल्टे रास्ते, उल्टी पटरी पर नहीं चढ़ जाएँ। गाड़ी में भी ज़ंजीर खींचने का साधन रखते हैं न, कुछ गिर जाए उसके लिए? परन्तु सिगरेट का पौकेट गिर जाए और हम ज़ंजीर खींचें, वह गुनाह कहलाएगा न?
पूरा जगत् स्थूल को ही समझा है। सूक्ष्मकर्म को समझा ही नहीं है। सूक्ष्म को समझा होता तो यह दशा ही नहीं होती !
एक सेठ ने पचास हजार रुपये दान में दिए, तो उसके मित्र ने उसे पूछा, 'इतने सारे रुपये दे दिए?' तब सेठ बोले, 'मैं तो एक पैसा भी दूँ ऐसा नहीं हूँ। ये तो इस मेयर के दबाव के कारण देने पड़े।' अब इसका फल वहाँ क्या मिलेगा? पचास हजार का दान दिया, वह स्थूल कर्म, उसका फल यहीं का यहीं सेठ को मिल जाता है। लोग 'वाह वाह' करते हैं। कीर्तिगान करते हैं और सेठ ने भीतर सूक्ष्म कर्म में क्या चार्ज किया? तब कहें, 'एक पैसा भी दूँ ऐसा नहीं हूँ।' उसका फल आनेवाले भव में मिलेगा।
आप्तवाणी-४
तो अगले भव में सेठ पैसा भी दान में नहीं दे सकेगा। अब इतनी सूक्ष्म बात किसे समझ में आए?
प्रश्नकर्ता: दादा, सूक्ष्मकर्म और स्थूलकर्म के कर्त्ता अलग-अलग
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हैं?
दादाश्री : हाँ, दोनों के कर्त्ता अलग हैं। ये जो स्थूलकर्म हैं, वे डिस्चार्ज कर्म हैं। ये बेटरियाँ होती हैं न, वे चार्ज करने के बाद डिस्चार्ज होती रहती हैं न? हमें डिस्चार्ज नहीं करनी हों, फिर भी वे होती ही रहती हैं न?
प्रश्नकर्ता: हाँ।
दादाश्री : वैसे ही ये स्थूलकर्म, डिस्चार्ज कर्म हैं, और दूसरे भीतर नये चार्ज हो रहे हैं, वे सूक्ष्म कर्म हैं। इस भव में जो चार्ज हो रहे हैं, वे अगले भव में डिस्चार्ज होते रहेंगे। और इस जन्म में पिछले जन्म की बेटरियाँ डिस्चार्ज होती रहती हैं। एक मन की बेटरी, एक वाणी की बेटरी और एक देह की बेटरी ये तीनों बेटरियाँ अभी डिस्चार्ज होती ही रहती हैं, और भीतर नई तीन बेटरियाँ चार्ज हो रही हैं।
यह मैं बोलता हूँ, तो तुझे ऐसा लगता है कि 'मैं' ही बोल रहा हूँ। पर नहीं, यह तो रिकॉर्ड बोल रही है। यह तो वाणी की बेटरी डिस्चार्ज हो रही है। मैं बोलता ही नहीं, और ये सारे जगत् के लोग क्या कहते हैं कि 'मैंने कैसी बात की, मैंने कैसा बोला!' ये सभी कल्पित भाव हैं, सिर्फ इगोइज़म ही करता है। इगोइजम जाए तो फिर दूसरा कुछ रहा? यह इगोइज़म ही अज्ञानता है और यही भगवान की माया है। क्योंकि करता है कोई और और खुद को ऐसा एडजस्टमेन्ट हो जाता है कि 'मैं ही कर रहा हूँ!'
ये सूक्ष्मकर्म जो अंदर चार्ज होते हैं, वे फिर कम्प्यूटर में जाते हैं। एक व्यष्टि कम्प्यूटर है और दूसरा समष्टि कम्प्यूटर है। व्यष्टि में पहले सूक्ष्मकर्म जाते हैं और वहाँ से फिर समष्टि कम्प्यूटर में जाते हैं। फिर समष्टि कार्य करता रहता है। ये दूसरे सब सूक्ष्मकर्म चार्ज होते हैं, उनकी बहुत