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(३५) कर्म की थियरी
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आप्तवाणी-४
चिंता नहीं है, परन्तु 'मैं चंदूभाई हूँ' ऐसे रियली स्पीकिंग बोलने से कर्म बंधते हैं। 'मैं कौन हूँ' इतना ही यदि समझ गया तो तब से ही सारे कर्मों से छूटा।
अर्थात् 'यह' सरल और सीधा विज्ञान दिया है, नहीं तो करोड़ों उपायों से भी एब्सोल्यूट हुआ जा सके ऐसा नहीं है और 'यह' तो बिलकुल 'थियरम ऑफ एब्सोल्यूटीज़म' है!
बुरे कर्मों से छुटकारा प्रश्नकर्ता : बुरे कर्म हम करते हैं, परन्तु उनमें से निकल जाने की हिम्मत नहीं आती।
दादाश्री : हिम्मत नहीं आती। बुरे काम का अभी बोझ इतना अधिक बढ़ गया है तो किस तरह हिम्मत आए? इसलिए एकबार तो दिवालिया ही निकाल देना है, फिर उधार चुकाना है। उधार तो चुकाना ही पड़ेगा न? मैं आपको रास्ता बता दूँगा उसका।
दादाश्री : पुण्य और पाप दोनों ही कर्म कहलाते हैं। परन्तु पुण्य का कर्म काटता नहीं है और पाप का कर्म हमारी इच्छानुसार नहीं होने देता और काटता है।
प्रश्नकर्ता : जिन्हें भौतिक सुख मिलते हैं, उन्होंने किस प्रकार के कर्म किए हों तब वे मिलते हैं?
दादाश्री : यदि कोई दु:खी हो रहा हो उन्हें सुख दे, उससे पुण्य बंधता है और परिणाम स्वरूप वैसा सुख हमें मिलता है। किसीको दुःख दो तो आपको दु:ख मिलेगा। आपको जैसा पसंद आए वैसा देना।
दो प्रकार के पुण्य हैं। एक पुण्य से भौतिक सुख मिलता है और दूसरा एक ऐसे प्रकार का पुण्य है कि जो हमें सच्ची आजादी प्राप्त करवाता
प्रश्नकर्ता : मनुष्य समझता है कि मृत्यु के बाद दूसरा जन्म है, फिर भी बुरे कर्म क्यों करता है? सही कर्म करने का रास्ता क्या है?
दादाश्री : खुद की इच्छा के विरुद्ध बुरे कर्म करने पड़ते हैं। सुबह उठे तब से आपकी सत्ता में कुछ भी नहीं है। सबकुछ परसत्ता के हाथ में है। वह परसत्ता एक शक्ति के हाथ में है, जिसे हम 'व्यवस्थित' कहते हैं। यह 'व्यवस्थित शक्ति' क्या करती है? आपके पुण्य का उदय आए तब सब अनुकूल संयोग इकट्ठे कर देती है और पाप का उदय आए तो उन सभी अनुकूल संयोगों को बिखेर देती है। अर्थात् सबकुछ परसत्ता में चल रहा है। फिर अच्छे कर्म हों या बुरे कर्म! जब तक परमार्थ सम्यक् दर्शन नहीं होता, तब तक जीव परसत्ता में ही रहता है।
निंदा का कर्मबंधन किसी व्यक्ति की निंदा नहीं करनी चाहिए। अरे, उनके बारे में थोड़ी बातचीत भी नहीं करनी चाहिए। उसमें से भयंकर दोष लगते हैं। उसमें भी यहाँ पर सत्संग में, परमहंस की सभा में तो किसी के बारे में थोड़ीसी भी बातचीत नहीं करनी चाहिए। एक थोड़ी-सी भी उल्टी कल्पना से ज्ञान पर कितना भारी आवरण आ जाता है, तो फिर इन 'महात्माओं' की टीका, निंदा करें तो कितना भारी आवरण आ जाएगा? सत्संग में तो दूध में चीनी घुल जाती है, वैसे घुल-मिल जाना चाहिए। यह बुद्धि ही अंदर दखल करती है। हम सबका सबकुछ जानते हैं फिर भी किसीके बारे में एक अक्षर भी नहीं बोलते। एक अक्षर भी उल्टा बोलने से ज्ञान पर बड़ा आवरण आ जाता है।
कर्म, पाप-पुण्य के प्रश्नकर्ता : पाप और कर्म एक ही हैं या अलग?
__ 'यह मुझे धोखा दे गया' वैसा बोला, तो वह भयंकर कर्म बाँधता है। इसके बदले तो दो धौल मार ले तो कम कर्म बंधेगा। वह तो जब धोखा खाने का काल उत्पन्न होता है, अपने कर्म का उदय होता है तभी धोखा खाते हैं। उसमें सामनेवाले का क्या दोष? उसने तो बल्कि हमारा