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________________ (३१) इच्छापूर्ति का नियम २२९ परन्तु ये कुदरत के नियम अलग प्रकार के हैं। ऊर्ध्वगति में ले जाना हो उसके नियम अलग और अधोगति में घसीटकर ले जाने के नियम अलग। इच्छाएँ तो सभी की पूरी होंगी ही। 1 कुदरत का नियम ऐसा है कि इच्छा हो और वस्तु मिले तब वे फिसल रहे हैं, अधोगति में जा रहे हैं और इच्छा हो तो वस्तु का ठिकाना नहीं पड़ता और ठिकाना पड़े तब वस्तु की इच्छा नहीं रहती, वह ऊर्ध्वगति में ले जानेवाला कहलाता है। अच्छा है वह । प्रश्नकर्ता: बहुत लोगों को तो इच्छा होने के साथ ही वस्तु हाज़िर हो जाती है, वह क्या कहलाता है? दादाश्री : इच्छा तुरन्त पूरी हो जाए तो फिर वह ऐसे रंग में चढ़ता है, ऐसे रंग में चढ़ता है कि फिर मार खा-खाकर मर जाता है और अधोगति में जाता है। क्योंकि मन का स्वभाव कैसा है कि एकबार कूदने की जगह मिली तो वह उछलकूद करके रख देता है! यह कलियुग है, इसलिए इच्छा हो और उसकी प्राप्ति हो जाए तो फिर अहंकार बढ़ जाता है और गाड़ी चलती है उल्टी । इसलिए इस काल में तो ठोकरें लगें, वही अच्छा कहलाता है। पुण्य के आधार पर इच्छा पूरी हुई तो लोगों ने देखो तूफ़ान मचाए, इच्छा के अनुसार हुआ तब तो यह दशा हुई ! पुण्य था वह खर्च हो गया और यह फँसाव खड़ा हुआ। पागल अहंकार है इसलिए ही न? इसलिए ठोकरें खा-खाकर प्राप्ति हो उसमें ही फायदा है इस काल में तो। कुदरत ने कितना सुंदर प्रबंध किया है! जिसे ऊर्ध्वगति में जाना है उसके लिए सबकुछ ही इच्छा के अनुसार सब पूर्ति कर देती है, परन्तु उस इच्छा के खत्म हो जाने के बाद। और अधोगति में जाना है उसे तुरन्त ही चीजें दे देती है। इसलिए कुदरत की इस बात को समझो । इच्छा, वहाँ अंतराय प्रश्नकर्ता: इच्छा का उद्भवस्थान क्या है? आप्तवाणी-४ दादाश्री : इच्छा संयोगों के दबाव से उत्पन्न होती है। अभी यह सभी को ओढ़ने की इच्छा नहीं होती, परन्तु ठंड एकदम पड़े तो सभी को उसकी इच्छा होगी। वह संयोगों के दबाव के कारण है। २३० प्रश्नकर्ता: इच्छा परतंत्रता है, इसलिए इच्छा क्या रखनी किसी चीज़ की ? दादाश्री : इच्छा नहीं रखनी हो तो भी छूटे वैसा नहीं है न! प्रश्नकर्ता: परब्रह्म में तो इच्छा और मन कुछ भी नहीं रहता । दादाश्री : परब्रह्म में इच्छा होती ही नहीं। इच्छा वह परवशता है। जगत् में निरीच्छक पुरुष हो तो वह सिर्फ 'ज्ञानी पुरुष' ही होते हैं। निरीच्छक अर्थात् जिन्हें किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं होती। पूरे जगत् का सोना दे तो उन्हें वह काम का नहीं होता, विषयों का जिन्हें विचार ही नहीं आता, मान-अपमान की जिन्हें कुछ पड़ी नहीं होती, कीर्ति के, शिष्यों के, मंदिर बनाने के भिखारी नहीं होते, इस देह के भी भिखारी नहीं होते । देह का स्वामित्व छूट चुका होता है। ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' हमें निरीच्छक बनाते हैं। स्वयं के उपयोग में कब रहा जा सकता है? जब सभी इच्छाएँ मंद हो जाएँ तब। कभी न कभी तो मंद करनी ही पड़ेंगी न? किंचित् मात्र भी इच्छा, वह भीख है। हम संपूर्ण निरीच्छक हो चुके हैं, तभी यह ज्ञानीपद प्राप्त हुआ है ! इच्छाएँ पूरी हों, तब अंतराय नहीं रहते। इच्छा करें तो उससे अंतराय होता है। जिसे जो इच्छा हो वह उसे दिखती नहीं है। क्योंकि इच्छा का आवरण घेर लेता है न? प्रश्नकर्ता: तीव्र इच्छा पूरी करने का उपाय क्या है? दादाश्री : जिसकी तीव्र इच्छा हुई वह चीज़ मिले बगैर रहेगी ही
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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