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(२२) लौकिक धर्म
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आप्तवाणी-४
वीतराग के मार्ग में तो एक शब्द में निरा सुख ही बरतता है। इन 'दादा' ने किसे त्याग करने के लिए कहा है? न तो पच्चखाण दिए, न ही त्याग का उपदेश दिया है। देखो, यों ही कैसा सुख बरतता है सभी को! और वापिस कभी कम नहीं पड़े वैसा सुख!! अस्त ही नहीं हो वैसा उजाला दिया है, अनंत उजाला!!!
लौकिक धर्म, द्वंद्व में ही रखें 'रिलेटिव' धर्म द्वंद्व उत्पन्न करनेवाले हैं और 'यह' तो 'रियल' मार्ग है। यह द्वंद्व से परे करनेवाला है। यदि धर्म की सच्ची दुकान होती तो भी ठीक था, पर ये तो भटका देंगे, वहाँ क्या फायदा? वहाँ कहेगा कि, 'आत्मा को पहचानो।' तब हम कहें कि, 'वह तो मेरे पिताजी भी कहते थे, इसलिए तो मैं आपके पास आया हूँ, ताकि आप पहचान करवा दें।' पर यह तो जहाँ और तहाँ सर्दी में ठंडे पानी से नहलाते हैं! जहाँ आत्मज्ञान का एक अक्षर भी नहीं देखा और बन बैठे हैं ज्ञानी। क्रोध-मान-माया-लोभ जहाँ साबुत हों, उसे ज्ञानी कहा ही कैसे जाए? ज्ञानी किन्हें कहते हैं कि जिनमें संसारी प्रवृत्ति नहीं हो, क्रोध-मान-माया-लोभ नहीं हों। वीतराग हो गए हों वे 'ज्ञानी' कहलाते हैं। यह तो चमड़े की आँख के कारण भेदबुद्धि उत्पन्न हुई है! दो भाई हों, फिर भी तू-मैं के भेद डालती है। पति-पत्नी हों, फिर भी भेदबुद्धि, झगड़ते हैं तब त् और मैं! यह 'रिलेटिव' ऐसा है. वह ठेठ तक कुचल-कुचलकर जीरो तक नहीं ले आए, तब तक अंत नहीं आएगा। 'रिलेटिव' धर्म भेद डलवाते हैं और 'रियल' धर्म ठेठ तक जुदाई नहीं लाता, भेद नहीं डालता, अभेद रखता है!
सभी 'रिलेटिव' धर्म लौकिक धर्म कहलाते हैं, वे मोक्ष में तो नहीं ले जा सकते। इसलिए कुछ करने को कहें कि, 'ऐसा करो, वैसा करो' ऐसा करवाते हैं। उसमें आप कर्ता नहीं हैं। फिर भी आपको कर्त्ताभाव में ही रखते हैं और हम आपको कुछ भी करने को नहीं कहते, इसलिए यह अलौकिक कहलाता है। यहाँ पर जो आ गया, तब फिर उसका मोक्ष होना ही चाहिए। इसलिए हम उसे पहले ही पूछ लेते हैं कि 'तुझे मोक्ष में जाना है? तेरा रोग निकालना है?' और फिर उसकी इच्छा हो तो 'ओपरेशन' कर देते हैं। और
यदि उसकी मोक्ष की इच्छा नहीं हो और संसार के सुख चाहिए हों, तो वह एडजस्टमेन्ट भी करवा देते हैं। घरवालों के साथ झगड़ा हो तो वह भी निकाल देते हैं और घर में एडजस्टमेन्ट' करवा देते हैं। एडजस्टमेन्ट ही मुख्य धर्म है। कोई आपके पास से पैसा ले गया हो और आपका उसके साथ का एडजस्टमेन्ट टूटे, तो उसे मुख्य धर्म चूक गए, ऐसा कहा जाएगा।
तुरन्त ही फल दे वह धर्म धर्म तो किसे कहते हैं? जो तुरन्त फल दे। तुरन्त फल देनेवाला हो तो ही धर्म है, नहीं तो अधर्म। यह क्रोध, तुरन्त ही फल देता है न? जैसे अधर्म तुरन्त फल देता है, वैसे ही धर्म का फल भी तुरन्त ही मिलना चाहिए। जब तक स्वरूप का अज्ञान नहीं गया तब तक यदि सच्चा धर्म करे तो भी उसके घर में क्लेश नहीं होगा। जहाँ कषाय है, वहाँ धर्म ही नहीं है। कषाय है वहाँ लोग धर्म ढूंढते हैं, वही आश्चर्य है! लोगों में परीक्षा करने का साहस ही नहीं है। सम्यक् दर्शन प्राप्त होने के बाद उसे संसार अच्छा ही नहीं लगता। इसलिए ही सम्यक् दर्शन क्या कहता है कि, 'मुझे प्राप्त करने के बाद तुझे मोक्ष में जाना ही पड़ेगा! इसलिए मुझे प्राप्त करने से पहले विचार करना।' इसलिए तो कवि ने गाया है न कि,
'जेनी रे संतो, कोटि जन्मोनी पुण्यै जागे, तेने रे संतो, दादानां दर्शन थाये रे, घटमां एने खटकारो खट खट वागे रे।' - नवनीत
खटकारो यानी क्या कि एकबार 'दादा' से मिला तो यहाँ पर बारबार दर्शन करने का मन होता रहता है। इसलिए हम कहते हैं कि, 'यदि तुझे वापिस जाना हो तो मुझसे मिलना मत और मिलना हो तो फिर तुझे मोक्ष में जाना पड़ेगा! यदि तुझे चार गतियों में जाना हो तो वह भी हूँ। यहाँ तो मोक्ष का सिक्का लग जाता है, इसलिए मोक्ष में जाना ही पड़ता है।' हम तो आपसे कहते हैं कि यहाँ पर फँसना नहीं और फँसने के बाद निकल नहीं सकोगे।