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(१८) ज्ञातापद की पहचान
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आप्तवाणी-४
मुक्ति प्राप्त करता है और परावलंबन से भटकता ही रहता है।
अंत में तो अहंकार विलय करना है इन मनुष्यों का स्वभाव कैसा है कि शुभाशुभ मार्ग को ग्रहण करना, उसे धर्म मानते हैं। सभी धर्मों में शुभाशुभ ही है। जैनधर्म में यदि शुभाशुभ की बात हो तो वह निचली कोटि का माना जाएगा, वहाँ तो शुभाशुभ की बात ही नहीं होती। उसमें तो कथानुयोग अर्थात् कि जो उत्तम पुरुष हो चुके हैं, उत्तम श्रेष्ठी, उत्तम ज्ञानी हो चुके हैं, उनका वर्णन सुनते हैं। उसमें से भाव जगते हैं कि मुझे भी ऐसा होना है। जैन धर्म का सार ही यह है, जब कि आज तो शुभाशुभ में पड़ गए! जैनों में चार प्रकार के अनुयोग हैं - कथानुयोग, चरणानुयोग, करुणानुयोग और द्रव्यानुयोग हैं और वेदांत में चार योग हैं। भगवान ने कहा है कि यदि तू जैन है तो इन चार अनुयोगों का पठन करना और उस वेदांत में चार योगों का पठन करना, तो आत्मा मिलेगा। शुभाशुभ से तो अहंकार बढ़ता है और कथानयोग से अहंकार नहीं बढ़ता। वस्तुपाल-तेजपाल की कथा सुनकर भाव होता है कि हम भी वैसे बनें। यह तो अहंकार बढ़ गए हैं। जैनों में अहंकार कितना होना चाहिए? घर के संचालन के लायक या व्यापार के लायक। यह तो निरा तूफ़ान लगा रखा है!
'ज्ञाता' को ही 'ज्ञेय' बनाया! "अनादि से 'ज्ञेय' को ही 'ज्ञाता' समझकर बरतें लोग।"- नवनीत।
अनादि से लोगों का लिए धर्म किसमें बरतता है? ज्ञेय को ज्ञाता मानकर धर्म करते हैं।'आचार्य', वह 'ज्ञेय' है और 'खद'"ज्ञाता' है. लेकिन भ्रांति से ज्ञेय को स्वयं मानता है। 'आचार्य' को 'खुद ही है' ऐसा मानता है। यह व्याख्यान मैंने दिया, शास्त्र मैंने पढ़े, तप मैंने ही किया, त्याग मैंने किया।' परन्तु करनेवाला जानता नहीं और जाननेवाला करता नहीं। करनेवाले का और जाननेवाले का कभी भी मिलाप था नहीं, है नहीं और होगा नहीं। यह तो कहेगा, 'मैं ही आचार्य हूँ और मैंने ही व्याख्यान दिया।' हम तो समझ गए कि आप कौन-से स्टेशन पर बैठे हो! माटुंगा स्टेशन
पर बैठा हुआ है और कहता है कि अगला स्टेशन ही कलकत्ता है। नहीं, वह तो अगला स्टेशन तो माहिम की खाड़ी का आया! अनंत जन्मों तक भटकेगा तो भी कलकत्ता नहीं आएगा! ज्ञाता-वह ज्ञाता है और ज्ञेय-वह ज्ञेय है। 'चंदूभाई', वे ज्ञेय हैं। इसका भाई', वह ज्ञेय है, 'इस व्यापार का मालिक है', वह ज्ञेय है। इस मकान का मालिक है', वह ज्ञेय है और 'हम' ज्ञाता हैं। हम ज्ञाता और यह ज्ञेय, ऐसे देखते रहे तो फिर समाधि रहती है। हमारा' धर्म क्या है? क्या हुआ उसे देखना और ज्ञाता-दृष्टापरमानंदी! धर्म किसे कहा जाता है? सोना सोने के धर्म में हो उसे। सोना पीतल के धर्म में हो, वह स्वधर्म नहीं कहलाता, वह परधर्म कहलाता है। यह तो जो चंदूलाल बनकर बैठा है, वह देह के धर्म को खुद का मानता है, अंत:करण के धर्म को खुद का धर्म मानता है। वह परधर्म है। परधर्म से कभी भी मोक्ष नहीं होगा, स्वधर्म से मोक्ष है। सोना हर समय अपने धर्म में ही है। पर यह तो 'चंदूलाल' का आरोपण करते हैं, इतना ही नहीं, साथ में वापिस कहता है कि इसका ससुर, इसका बेटा, इसका बाप, कोर्ट में जाए-तब इसका वकील, दुकान में हो-तब सेठ' यही भ्रांति है। 'स्वयं शुद्धात्मा ही है', पर ऐसे आरोप के कारण समझ में नहीं आता।
अज्ञान निवृत्ति विज्ञान से मोक्षधर्म अर्थात् अज्ञान से निवृत्ति हो, वह। इस' मोक्षमार्ग में अज्ञान से निवृत्ति करवा देते हैं, इसलिए ज्ञान में हुई प्रवृत्ति ! अज्ञान निवृत्त हो जाए तो विज्ञान उत्पन्न होता है। परन्तु ज्ञानी के बिना किसीसे अज्ञान निवृत्त नहीं होता, किसीका देहाध्यास नहीं छूटता है। देहाध्यास की निवृत्ति, ही मोक्ष है। एक ही अंश ज्ञान की प्रवृत्ति हो जाए तो सर्वाश हो जाए। एक ही अंश साइन्स हो जाए तो सर्वाश हो जाए। क्योंकि ज्ञान, वह साइन्स है, अज्ञान, वह साइन्स नहीं है। एक अंश विज्ञान कब उत्पन्न होता है? कि 'इस' रास्ते के जानकार हों, रास्ते के जानकार से पूछना पड़ता है, तब रास्ता मिलता है। वैसे ही 'इन' जानकार 'ज्ञानी परुष' से पछे तो मार्ग की प्राप्ति होती है। 'यह' धर्म नहीं है, साइन्स है। यह तो 'रियल' धर्म है। यह हमेशा प्रकट नहीं रहता। यह तो चौदह लोकों के नाथ हमारे भीतर प्रकट हुए