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________________ १४४ आप्तवाणी-४ करने का गुण है? प्रश्नकर्ता : वह आत्मा का गुण नहीं है। भूल से कषाय कर बैठता (१८) ज्ञातापद की पहचान आप आत्मा? पहचाने बिना? दादाश्री : क्या नाम है? प्रश्नकर्ता : चंदूलाल। दादाश्री : वास्तव में 'आप चंदूलाल हो' वह बात निश्चित है? या उसमें शंका है? प्रश्नकर्ता : वह तो शरीर का नाम है। दादाश्री : तो आप कौन हो? प्रश्नकर्ता : आत्मा। दादाश्री : आत्मा अर्थात् क्या? आत्मा अर्थात् यह देह है वह आत्मा है या ये चूड़ियाँ हैं, वे आत्मा हैं या दिमाग़ है, वह आत्मा है? किसे आत्मा कहेंगे? उसे पहचानना पड़ेगा न? आत्मा का ज्ञान तो जानना पड़ेगा न? प्रश्नकर्ता : अंतरात्मा। दादाश्री : हाँ। अंतरात्मा तो है पर उसे जानना पडेगा न कि उसके क्या गुणधर्म हैं? वह खाता-पीता है या नहीं खाता-पीता? या फिर कोई जला दे तो वह जलता है या नहीं जलता? आत्मा की भूल? आत्मा का गुण क्या है? उसका चिंता करने का गुण है या कषाय दादाश्री : आत्मा से भूल हो, तो वह आत्मा ही कैसे कहलाएगा? आत्मा तो परमात्मा ही है। वह भूल करेगा ही कहाँ से? और आत्मा की भूल दिखानेवाले हम वापिस उसके ऊपरी कि 'भाई, आत्मा ने भूल की?' आत्मा ने भूल की यह वाक्य इटसेल्फ कहता है कि आत्मा ने भूल की है और हम शुद्ध हैं, बिना भूल के!(?) आत्मा खुद ही परमात्मा है, खुद ही वीतराग है। वह तो स्वरूप का भान नहीं हुआ है इसलिए खुद मानता है कि, 'मैं चंदूलाल हूँ।' 'मैं चंदूलाल हूँ', वह आरोपित भाव है, कल्पित भाव है, 'रिलेटिव' भाव है। तो 'रियल' में कौन होंगे आप? यह चंदूलाल, तो 'रिलेटिव' कहलाता है। 'रिलेटिव' में बहुत तरह के विकल्प होते हैं, 'मैं उनकी बेटी हूँ, मौसी हूँ, चाची हूँ' ऐसे बहुत विकल्प हैं, जब कि 'रियल' में कोई विकल्प नहीं है। 'रियल' का रियलाइज़ किया जाए तो हमें पता चल जाएगा कि स्वरूप का भान हुआ, इसलिए मोक्ष जाने की तैयारी हुई। 'रियल' का कभी भी भान ही नहीं हुआ। आत्मा का भान होना, उसे समकित अथवा सम्यक् दर्शन कहते हैं। समकित नहीं हुआ था कभी भी, यदि हुआ होता तो यहाँ बैठे नहीं होते हम। समकित के बिना घड़ीभर भी अंतरशांति नहीं रहती, मूर्छा में ही रहता है। विवाह हो तब मूर्छित हो जाता है और विवाह हो जाने के बाद, था वैसे का वैसा, उसे मोहनिद्रा कहा है। स्वाध्याय या पराध्याय? दादाश्री : किसका पठन करते हो? प्रश्नकर्ता : जैन स्वाध्याय, सूत्र, व्याख्यान ऐसा सब करता हूँ। दादाश्री : यह स्वाध्याय जो करते हैं, वे पराध्याय करते हैं। एकबार स्वरूप का स्वाध्याय करे न, तब से हल आ जाए। जगत् में चलता है वह परावलंबन है, वह अवलंबन सच्चा भी होता है। परन्तु स्वावलंबन से तो
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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