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अहिंसा
होकर जाता है। क्योंकि मरणकाल आया है इसलिए! फिर वहाँ उसे कसाईखाने में रंगते-करते हैं न, तो वह अंदर खुश भी होता है। वह समझता है कि दिवाली आई। ऐसा जगत् है। परन्तु यह सब समझने जैसा है।
इसलिए उसके मरणकाल के बिना बाहर तो कोई मरता नहीं है। परन्तु तू मारने का भाव करता है. इसलिए तुझे भावहिंसा लगती है और वह तेरे आत्मा की हिंसा हो रही है। तू अपनी खुद की हिंसा कर रहा है। बाहर का तो वह मरनेवाला होगा तब मरेगा। उसका टाइम आएगा, उसका संयोग आ मिलेगा और वह तो साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स हैं। कितने सारे एविडेन्स इकट्ठे हों और वे तो आँखों से दिखते नहीं ऐसे एविडेन्स इकट्ठे हों, तब वह जीव मरता है। इसलिए उसे मन में ऐसा लगता है कि 'मैंने मार डाला।"अरे, तेरी मारने की इच्छा तो नहीं
और किस तरह मारा उसे?' तब कहेगा, 'परन्तु मेरा पैर उसके ऊपर पड़ा न?' 'अरे, पैर तेरा है? तेरे पैर को पक्षाघात नहीं होता?' तब कहे, 'पक्षाघात तो पैर को होता है। तो वह पैर तेरा नहीं है। तेरी वस्तु को पक्षाघात नहीं होता। तू पैर के ऊपर तेरा मालिकीपन रखता है, पर झूठी मालिकी है। किसी ज्ञानी पुरुष को पूछ तो आ, कि यह मेरा है या पराया है? वह पूछ न! पूछे तो ज्ञानी पुरुष समझा दें कि भाई, यह सब नहीं है तेरा। यह पैर भी पराया, यह दूसरा सब पराया और यह तेरा। ऐसे ज्ञानी पुरुष सब स्पष्टता कर देंगे। ज्ञानी पुरुष के पास सर्वे करवा ले। यह तो लोगों के पास सर्वे करवाता है। पर यह सर्वे करनेवाले तो पागल हैं। वे तो पराई वस्तु को ही मेरी कहते हैं। इसलिए सच्चा सर्वे हुआ ही नहीं। ज्ञानी पुरुष सर्वे करके अलग कर देते हैं और लाइन ऑफ डिमार्केशन डाल देते हैं कि यह इतना भाग आपका, यह इतना भाग पराया। जो कभी भी अपना नहीं होता, वह पराया कहलाता है। चाहे जितनी माथाकूट करें, फिर भी वह अपना नहीं होता।
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अहिंसा समझ में आ जाता। फिर भी यह बात भगवान ने की है, पर लोगों को समझ में नहीं है। भगवान ने सारी ही स्पष्टता की है। पर वह सब सूत्रों में है। उन लाख सूत्रों को पिघलाएँ तब इतना पिघले। भगवान जो बोले, वह सोने के रूप में निकला और गौतम स्वामी सब सूत पर चढ़ाते रहे। अब जब कोई गौतम स्वामी जैसा हो, तब वापिस उन सूत्रों में से सोना निकाले। पर वह गौतम स्वामी जैसे आएँ कब और सोना निकले कब और अपने दिन फिरें कब?
___'मारना नहीं है' का निश्चय करो
अब कितने ही लोगों ने निश्चय किया है कि 'हमें नाम मात्र की भी हिंसा करनी नहीं है। किसी जीव जंतु को मारना नहीं है। ऐसा निश्चय किया हो तो फिर उससे जीवजंतु कोई मरने के लिए फालतू ही नहीं होता। उसके पैर के नीचे आए तब भी बचकर चला जाता है। और 'मुझे जीव मारने ही हैं' ऐसा जिसने निश्चय किया है, वहाँ मरने के लिए सब तैयार
बाकी, भगवान ने कहा है कि इस जगत् में कोई मनुष्य किसी भी जीव को मार सकता ही नहीं। तब कोई कहे, 'हे भगवान, ऐसा क्या बोलते हैं? हमने मारते हुए सबको देखा है न!' तब भगवान कहते हैं, 'नहीं, उसने मारने के भाव किए हैं और इन जीवों का मरणकाल आ रहा है। इसलिए इसका मरणकाल आए तब उसका संजोग मिल जाता है, मारने के भाववाले से मिल जाता है। बाकी मार तो नहीं ही सकता है। पर मरणकाल आए तो मरते हैं और तब ही वह मिल आता है। यह बात बहत झीनी है। वर्ल्ड यदि समझा होता न आज, तो आश्चर्यचकित हो जाता!
प्रश्नकर्ता : ट्रेन में एक्सिडन्ट होता है और ट्रेन के नीचे आदमी मर जाता है। तो उसमें ट्रेन ने कौन-सा निश्चय किया?
दादाश्री : ट्रेन को निश्चय की ज़रूरत ही नहीं होती। यह तो जिसका मरणकाल मिल आता है न, तब वह कहेगा कि, 'हम चाहे जिस तरह से मरेंगे।' तो 'वह परवाह ही नहीं' ऐसा भाव हो तो वैसा मरण आता है।
अब मरणकाल किसी के हाथ की बात नहीं है। पर भगवान ने यह बताया नहीं है कि इसके पीछे कॉज़ेज़ हैं। कुछ ज्ञान बताए नहीं जा सकते। इस प्रकार बात भगवान ने यदि विस्तारपूर्वक की होती तो लोगों को बहुत