________________
प्रथमः सर्गः 'परम्परा पर अभिमान करने वाला, अपने कुल की मर्यादा का ध्यान रखने वाला । त्वत् अन्यः=तुम (युधिष्ठिर ) से अन्य (दूसरा), तुमसे अतिरिक्त दूसरा। कः इव नराधिपः= कौन-सा राना । गुणानुरक्तां=गुणों के कारण अनुराग रखने वाली, (शौर्य, सौन्दर्य इत्यादि) गुणों के कारण मुग्ध हुई (गुणमुग्धा)। कुलजां=कुलीना, अच्छे कुल में उत्पन्न । मनोरमाम् = सुन्दर, मन को अपनी ओर आकर्षित ( आकृष्ट ) करने वाली, हृदय को आनन्द प्रदान करने वाली । आत्मवधूम् इव अपनी पत्नी (गृहलक्ष्मी) की तरह । [लक्ष्मी के पक्ष में -गुणानुरक्तां = संधि-विग्रह इत्यादि गुणों के कारण अनुराग रखने गली अर्थात् स्थायी रूप से रहने वाली। कुलजां = कुल-परम्परा (वंश परम्परा) से प्राप्त हुई। मनोरमाम् = मन को प्रसन्न करने वाली ] । श्रियं = राज-लक्ष्मी को । परः = दूसरों के द्वारा, शत्रुओं के द्वारा । अपहारयेत् = अपहरण करवायेगा। ___ अनु०-अनुकूल रहने वाले सेवकों से युक्त तथा अपने कुल का अभिमान करने वाला तुम (युधिष्ठिर ) से दूसरा कौन राजा (शौर्य, सौन्दर्य इत्यादि) गुणों के कारण मुग्ध हुई, अच्छे कुल में उत्पन्न हुई और हृदय को आनन्द प्रदान करने वाली अपनी पत्नी की तरह संधि-विग्रह इत्यादि गुणों के कारण स्थायी रूप से रहने वाली, कुल-परम्परा से प्रान हुई और मन को प्रसन्न करने वाली राजरक्ष्मी का दूसरों के द्वारा अपहरण करवायेगा।
व्या०-अस्मिन् श्लोके पत्न्या सह राजलक्ष्म्याः तुलना कृता । अत्र द्रौपदी कथयति लोके यथा भार्यायाः परैः अपहरणं गर्हितं अकीर्तिकरं प्रतिष्ठान्निाशकं च भवति तथैव गज्ञां कृते स्वराजलक्ष्म्याः परैः अपहरणमपि गर्हितं अपकीर्तिकर प्रतिष्ठाविनाशकं च भवति । अनुकूलसहायवान् कुलीनत्वाभिमानी च भवदन्यः को नृपतिः विद्यते यः गुणमुग्धां (शौर्यसौन्दर्यादिभिः गुणैः अनुरागिणीं) कुलीनां ( सत्कुलोत्पन्नां) मनोहारिणी निजभायामिव संधिविग्रहादिभिः गुणैः स्थायिनी कुलक्रमादागतां मनामुग्धकारिणी राजलक्ष्मी परैः अपहारयेत् । कल्लापहारवल्लक्ष्म्यपहारोऽपि राज्ञां महाहानिकरत्वात् अनुपेक्षणीय इति भावः । भवता तु स्वपत्नी राजलक्ष्मीः च उभे परैः अपहारिते। अहो विस्मयकरी ते मूढता ।