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किरातार्जुनीयम् स०-अनुरक्तं साधनं यस्य सः अनुरक्तसाधनः (बहु०)। कुलस्य अभिमानी (तत्पु०)। नराणाम् अधिपः इति नराधिपः (तत्पु०)। गुणैः अनुरक्ता इति गुणानुरक्ता ताम् (तृतीया तत्पु०) अथवा गुणेषु अनुरक्ता इति गुणानुरक्ता ताम् (सप्तमी तत्पु०)। कुले जायते इति कुलजा ताम् कुलजाम् ( उपपद समास)। मनः रमयति इति मनोरमा ताम् मनोरमाम् (उपपद समास)। आत्मनः वधूः आत्मवधूः ताम् आत्मवधूम् (षष्ठी तत्पु०)।
व्या०-अपहारयेत्-अप+ह+णिच + विधिलिङ, अन्यपुरुष, एकवचन ।
टि०-(१) श्लिष्ट पदों के अर्थ 'आत्मवधू' और 'श्रियम्' दोनों ओर. सरलता से लग जाते हैं। (२) युधिष्ठिर ने अपने राज्य को, भाइयों सहित. अपने को और द्रौपदी को जुए में दाँव पर लगाया था। इस कारण द्रौपदी मर्माहत है, मार्मिक मनोव्यथा से पीड़ित है, अपमानजन्य अग्नि उसके अन्दर धधक रही है। वह अपनी मार्मिक मनोव्यथा को अत्यन्त मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त कर रही है। वह युधिष्ठिर के हृदय को तीखे वाग्बाणों से वेध रही है । वह युधिष्ठिर को यह बतलाना चाह रही है कि उन्होंने अपनी पत्नी का और अपनी राजलक्ष्मी का शत्रुओं के द्वारा अपहरण कराया। संसार में कोई भी व्यक्ति इस प्रकार का कुकृत्य नहीं कर सकता है। द्रौपदी यह भी संकेत कर रही है कि चंचल होने पर भी लक्ष्मी युधिष्ठिर के पास स्थिरता से रह रही थी। लक्ष्मी युधिष्ठिर का परित्याग करके नहीं गई। युधिष्ठिर ने स्वयं लक्ष्मी का परित्याग किया है। अत: अब युधिष्ठिर का यह अनिवार्य कर्तव्य है कि वह गई हुई लक्ष्मी को पुनः प्राप्त. करे । (३) श्लेषानुप्राणित पूर्णोपमा अलंकार ।
घण्टापथ-गुणेति । अनुरक्तसाधनोऽनुकूलसहायवान् । उक्तं च कामन्दकीये 'उद्योगादनिवृत्तस्य सुसहायस्य धीमतः। छायेवानुगता तस्य नित्यं श्रीः सहचारिणी' इति । कुलाभिमानी क्षत्रियत्वाभिमानी कुलीनत्वाभिमानी च । त्वदन्यस्त्वत्तोन्यः । 'अन्यारात्' इत्यादिना पञ्चमी। क इव नराधिपो गुणः सन्ध्यादिभिः सौन्दर्यादिभिश्च अनुरक्तामनुरागिणीं कुलजां कुलक्रमादागतां कुलीनां च मनोरमां श्रियम् आत्मवधूमिव स्वभार्यामिव 'वधू र्जाया स्नुषा स्त्री च' इत्य