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________________ किरातार्जुनीयम् पुरुषैः प्रासा एषा पृथिवी स्वकीयेन चापलेन परित्यक्ता । अहो विस्मयकरी भवतः मूढ़ता । भवतः प्रमादजनितैव एषा विपत्तिः न दैवकृता इति द्रौपद्याः अभिप्रायः । स०-आखण्डलेन ( इन्द्रेण) तुल्यं धाम येषां ते आखण्डलतुल्यधामानः तैः आखण्डलतुल्यधामभिः (बहु०)। स्वस्य वंशः स्ववंशः (तत्पु०), स्ववंशे जायन्ते ये ते स्ववंशजाः तैः स्ववंशजैः (उपपद समास)। भुवः पतयः भूपतयः तैः भूपतिभिः (तत्पु०)। नास्ति खण्डं यस्मिन् तद् यथा स्यात्तथा अखण्डम् (बहु०) अथवा न खण्डम् इति अखण्डम् (नञ समास)। मदं च्योततीति मदच्युत् तेन मदच्युता ( उपपद समास)। मतङ्गात् जायते इति मतङ्गजः, तेन मतङ्गजेन ( उपपद समास)। आत्मनः हस्तः इति आत्महस्तः तेन आत्महस्तेन (तत्पु०)। व्या०-'अखण्डम्' 'धृता' का क्रियाविशेषण है। अतः इसमें द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त हुई। धृता-धृ+त+टाप । अपवर्जिता-अप+ वृज+ णिच्+क्त+टाप् । टि०-(१) पर्वतों के पक्षों को तोड़ने (खण्ड-खण्ड करने ) के कारण इन्द्र का नाम आखण्डल है। (२) मतंग ऋषि के शाप से चित्ररथ नामक गन्धर्व के पुत्र प्रियंवद को हाथी के रूप में जन्म लेना पड़ा था। अतः हाथी को 'मतंगज' कहा जाने लगा। (३) द्रौपदी युधिष्ठिर का फटकारती हुई कह रही है कि हम सब लोगों की विपत्ति के कारण आप ही हैं। कुलपरम्परा से प्रास राज्य का आपने जुआ खेलकर परित्याग कर दिया। आपने राज्य खोया है, आप ही उसे प्राप्त कर सकते हैं। अतः आप को पुनः राज्य-प्राप्ति के लिए उद्योग करना चाहिए । (४) उपमा अलंकार । घण्टापथ-अखण्डमिति । अखण्डलतुल्यधामभिः इन्द्रतुल्पप्रभावैः । स्ववंशजैः भूपतिभिः भरतादिभिः चिरम् अखण्डम् अविच्छिन्नं धृता मही त्वया मदच्युता मदं च्योततीति मदच्युत् क्वि । तेन मदस्राविणा मतङ्गजेन स्रगिव आत्महस्तेन स्वकरण, स्वचापलेनेत्यर्थः। अपवर्जिता परिहता, त्यक्ता । स्वदोषादेवायमनर्थागम इत्यर्थः ॥२६॥
SR No.009565
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorMardi Mahakavi
AuthorVirendrakumar Sharma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year
Total Pages126
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 MB
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