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प्रथमः सर्गः रूपस्त्रीसमाचाराः । 'समयाः शपथाचारकालसिद्धान्तसंविदः' इत्यमरः । दुराधयः समयोल्लङघनहेतुत्वाद् दुष्टा मनोव्यथाः । 'पुंस्याधिर्मानसी व्यथा' इत्यमरः । मां वक्तु व्यवसाययन्ति प्रेरयन्ति । न किञ्चिदयुक्त दुःखितानामिति भावः ॥२८॥ अखण्डमाखण्डलतुल्यधामभिश्चिरं धृता भूपतिभिः स्ववंशजैः। वयात्महस्तेन मही मदच्युता मतङ्गजेन सगिवापवर्जिता ॥२९॥
अ०-आखण्डलतुल्यधामभिः स्ववंशजैः भूपतिभिः चिरम् अखण्ड घृता मही त्वया मदच्युता मतङ्गजेन स्रक् इव आत्महस्तेन अपवर्जिता।
श-आखण्डलतुल्यधामभिः = इन्द्र (आखण्डल) के समान पराक्रम (प्रभाव, तेज) वाले। स्ववंशजैः = अपने कुल में उत्पन्न हुए । भूपतिभिः = राजाओं के द्वारा | चिरम् = बहुत काल (समय) तक। अखण्डं = सम्पूर्ण रूप से। धृता = धारण की गई, अपने अधिकार में रखी गई, पालन की गई, रक्षित | नही = पृथ्वी । त्वया = आप (युधिष्ठिर) के द्वारा । मदच्युता = मदस्रावी (मद जल बहाने वाले)। मतङ्गजेन = हाथी के द्वारा । स्त्रक् इव = पुष्प-माला की तरह। आत्महस्तेन = अपने हाथ से, अपनी चपलता के कारण ( हाथी के पक्ष में अपनी सूंड से)। अपवर्जिता = छोड़ दी, त्याग दी, फेंक दी। ___ अनु०-इन्द्र के समान पराक्रम (प्रभाव, तेज) वाले अपने कुल में उत्पन्न हुए (भरत इत्यादि) राजाओं के द्वारा बहुत काल तक सम्पूर्ण रूप से धारण की गयी ( अपने अधिकार में रखी गई ) पृथ्वी आप (युधिष्ठिर ) के द्वारा स्वयं अपने हाथ से छोड़ दी गई, जिस प्रकार मद-जल बहाने वाले हाथी के द्वारा पुष्प-माला अपने ढूंढ़ से फेंक दी जाती है । ___ व्या०-हे युधिष्ठिर! इन्द्रसदृशपराक्रमशालिनः भवतः पूर्वजाः राजानः भरतादयः इमां पृथिवीं समग्ररूपेण बहकालपर्यन्तं भुक्तवन्तः (रक्षितवन्तः)। निजकुलायन्नैः पूर्वजैः रक्षिता (भुक्ता) एषा पृथिवी भवता प्राणपणेनापि रक्षणीया। किन्तु भवता तु पृथिव्याः रक्षा न कृता। यथा मदमत्तः गजः स्वशिरसि धृतां पुष्पमालां स्वकीयेनैव शुण्डेन अधः क्षिपति तथैव भवतापि पूर्व