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प्रथमः सर्गः पूरी तरह से जानता है। विधाता की (इच्छा की तरह ) उस (दुर्योधन) की चेष्टा (योजना) अत्यधिक समृद्धि को प्रदान करने वाले तथा कल्याणकारक फलों के द्वारा ही ज्ञात होती है।
व्या-स्वराष्ट्रवत् परराष्ट्रवृत्तान्तमपि दुर्योधनः वेत्तीति निरूपितमत्र । स्वराट्रस्य सर्वाणि कार्याणि समाप्य सः दुर्योधनः शुद्धचरितैः गुप्तचरैः अन्येषां राष्ट्राणां सम्पूर्ण वृत्तान्तं जानाति । किन्तु यथा परमेश्वरः किं कर्तुमिच्छति इति तस्य कार्यः एव ज्ञायते तथैव दुर्योधनस्य मनसि स्थितः संकल्ला महावृद्धिभिः शुभपरिणामैश्च फलैरेव ज्ञायते । तस्य कार्यस्य ज्ञानं फलोदयात् पूर्व न भवति । फलानुमेयाः तस्य प्रारम्भा इत्यर्थः।
स०-न शेषिताः इति अशेषिताः (नञ् समास), अशेषिताः क्रिया: येन सः अशेषितक्रियः (बहु०)। सत् चरितं येषां ते सच्चरिताः तैः सच्चरितैः (बह०)। महीं बिभर्ति इति महीभृत् तेषां महीभृताम् (उपपद समास)। महान् उदयः येर्षा तानि महोदयानि तैः महोदयैः (बहु०)। हितम् अनुबध्नन्ति इति हितानुबन्धिनः तैः हितानुबन्धिभिः ( उपपद समास)।
व्या०-चरैः-चरन्तीति चराः तैः। चर+अच् । हितानुवन्धिभिः हित+ अनु+बन्ध + णिनि । ईहितम्-ईह+क्त । वेद-विद् + लट् , अन्य पुरुष, एकवचन । प्रतीयते-प्रति++लट अन्यपुरुष, एकवचन ।
टि०-(१) इस श्लोक में पहली बात तो यह बतलाई गई है कि दुर्योधन अपने राष्ट्र के वृत्तान्त को जानने के साथ-साथ अन्य राष्ट्रों के वृत्तान्त को भी भलीभाँति जानता है। दूसरी बात यह बतलायी गई है कि अपने गुत्पचरों के माध्यम से वह दूसरे राजाओं के रहस्यों को तो पूर्णरूप से जानता है, किन्तु उसके रहस्यों को कोई नहीं जानता। दूसरे लोगों को उसकी योजनाओं का तभी पता चलता है जब वे कार्यरूप में परिणत हो जाती हैं। राजनीति में मन्त्र गुप्ति' का बड़ा भारी महत्त्व होता है। जिस राजा की मन्त्रणा जितनी गुत्प रहती है वह उतना ही अधिक सफल होता है। (२) धातुरिव' इस अंश में उपमा अलंकार है।