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________________ प्रथमः सर्गः स०-महत् ओजः येषां ते महौजसः ( बहु०)। मानः एव धनं येषां ते मानधनाः (बहु० )। धनैः अर्चिताः इति धनार्चिताः (तत्पु०)। लब्धा कीतिः यैः ते लब्धफीर्तयः ( बहु० )। भिन्नाः वृत्तयः येषां ते भिन्नवृत्तयः ( बहु०)। व्या०-संहताः-सम् + हन् + क्त । समीहितुम्-सम् + ईह् +तुमुन् । टि०-(१) सेना राजा का बल कहलाती है। देश की सुरक्षा सेना पर आधारित होती है। उस राजा का शासन किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है विसकी सेना में निर्बल, डरपोक, स्वार्थी, दलबन्दी करने वाले और अनुशासनहीन (अपने-अपने मन की करने वाले) व्यक्ति होते हैं। राजा , दुर्योधन की शासनकुशलता का ही यह परिणाम है कि उसने अपनी सेना में ऐसे व्यक्तियों को नियुक्त किया है जो अत्यधिक बलवान् हैं, अभिमान (स्वाभिमान ) को ही घन मानने वाले हैं, अनेक युद्धों में निरन्तर विजय प्राप्त करके जिन्होंने अपनी कीर्ति स्थापित की है, स्वार्थवश जो कभी संगठित नहीं होते और न अपने-अपने मन की करने वाले हैं। राजा दुर्योधन कृतज्ञतावश अपने योग्य योद्धाओं को समया-समय पर बहुमूल्य पारितोषिक प्रदान करता है। इससे प्रसन्न होकर वे अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी राजा के अभीष्ट कार्यों को सम्पादित करना चाहते हैं। (२) महौजसः' इत्यादि विशेषणों से हेतु का निर्देश होने से काव्यलिङ्ग अलंकार है। साभिप्राय विशेषण होने से परिकर अलंकार है। दोनों अलंकारों के तिलतण्डुलवत् स्थित होने से संसृष्टि अलंकार ।। घण्टापथ-महौजस इति । महौजसो महाबलाः अन्यथा दुर्बलानामनुपकारित्वादिति भावः। मानः कुलशीलाद्यभिमान एव धनं येषां ते मानधनाः। अन्यथा कदाचिद् बलदाद्विकुर्वीरन्निति भावः। धनार्चिताः धनेरर्चिताः सत्कृताः । अन्यथा दारिद्रयादेनं जयुरिति भावः। संयति संग्रामे लब्धकीर्तयः बहुयशस इत्यर्थः । अन्यथा कदाचिन्मुह्येयुरिति भावः । संहता मिथः संगताः स्वार्थनिष्ठा न भवन्तीति न संहताः। ननर्थस्य नशब्दस्य सुप्सुपेति समासः । भिन्नवृत्तयो मिथो विरोधात् स्वामिकार्यकरा व भवन्तीति न भिन्नवृत्तयः । पूर्ववत् समासः । अन्यथा
SR No.009565
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorMardi Mahakavi
AuthorVirendrakumar Sharma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year
Total Pages126
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 MB
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