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किरातार्जुनीयम् श०-महौजसः = महा बलशाली (बली), अत्यधिक पंरात्रमी मानधनाः = (कुलशील आदि का) अभिमान (मान) ही है धन जिनका प्रतिष्ठा (फीति) को ही धन समझने वाले, मनस्वी। धनाचिंताः%3D (राज दुर्योधन के द्वारा) धन से सत्कृत (पूजित, सम्मानित, प्रसन्न किए गए) संयति = युद्ध (संग्राम, समरभूमि, युद्धस्थल) में | लव्धकीर्तयः = कीर्ति (यश) प्राप्त कर लेने वाले, कीर्ति को प्राप्त किए हुए । न संहताः = (स्वार्थवश अथवा राजा के विरोध में) संगठित न होने वाले, गुटबन्दी ( दलबन्दी) न करने वाले । न भिन्नवृत्तयः आपसी वैमनस्य के कारण प्रतिकूल ( विरोधी) आचरण न करने वाले, अपने-अपने मन का न करने वाले, आपसी शत्रता से स्वामी के कार्य में बाधक न होने वाले । धनुभृतः = धनुर्धारी, योद्धा, वीर । असुभिः = (अपने) प्राणों से, अपने जीवन को समर्पित करके । तस्य = उस (दुर्योधन) के । प्रियाणि = प्रिय (अभीष्ट, अभिलषित, हितकर) कार्यों को । समीहितुं वाच्छन्ति = करना चाहते हैं । __ अनु०-अत्यधिक बलशाली, अभिमान ( सम्मान, कीर्ति, प्रतिष्ठा) को ही धन मानने वाले, (दुर्योधन के द्वारा) धन से सस्कृत, युद्ध में (सदैव विजय प्राप्त करने से) कीर्ति (यश) को प्राप्त कर लेने वाले, (स्वार्थवश ) संगठित न होने वाले ( दलबन्दी न करने वाले) तथा आपसी वैमनस्य (शत्रुता) के कारण प्रतिकूल आचरण न करने वाले (आपसी शत्रता से स्वामी के कार्य में बाधक न होने वाले ) योद्धा अपने प्राणों से (अर्थात् अपने प्राण देकर भी) उस (दुर्योधन) के प्रिय (अभीष्ट) कार्यों को करना चाहते हैं ।
व्या०-अस्मिन् श्लोके दुर्योधनस्य वीरभटानां सद्गुणाः तेषां वीरभटानां दुर्योधनं प्रति आनुकूल्यं च निरूपितम् । दुर्योधनस्य वीरभटाः अतितेजस्विनः कुलशीलाद्यभिमानशालिनः दुर्योधनेन प्रभूतधनप्रदानेन सम्मानिताः समरे समर्जितयशसः च वर्तन्ते । धनुर्धारिणः ते स्वार्थसिद्धयर्थ न कदापि सङ्गठिताः न च विरुद्धमायः भवन्ति अपितु स्वस्वामिनः प्रयोजनस्य पूरकाः एव वर्तन्ते । सर्वे वीरभटाः स्वप्राणप्रदानेनापि स्वस्वामिनः दुर्योधनस्य प्रियकार्याणि कर्तुमिच्छन्ति ।