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एक रूप अनुभूति कर सकता है तब अपनी चैतन्य सत्ता की, अपने अस्तित्व की अपने रूप अनुभूति क्यों नहीं कर सकता ? जबकि अनुभव करने वाला वहीं है । अतः जब यह ज्ञान होता है कि मैं चैतन्य हूँ यह संयोगी द्रव्य पुद्गल हैं इसका अस्तित्व भिन्न है मेरा अस्तित्व उससे भिन्न है तब यह जिस तरह दोनों की एक सत्ता का अनुभव करता है वैसे ही अपनी पुद्गल से भिन्न सत्ता की अनुभूति कर सकता है। अपनी सत्ता में पर का प्रवेश नहीं, गुणों से अभेद, प्रदेशों से अखण्ड अपनी अनुभूति करना सहज हैं। ऐसा श्रद्धान करना जरूरी ह" और ऐसी अनुभूति आज भी गृहस्थ कर सकता है। यही आत्मानुभव है जो मोक्ष का द्वार है।
स्वानुभव
मिली हुई चीजों में अपना अस्तित्व अपने में ही अनुभव करना स्वानुभव अथवा निजसत्तावलोकन है। आत्मानुभव करने वाला साधक सर्वप्रथम तो आत्मा का द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक दोनों दृष्टियों से जैसा स्वरूप है वैसा आगम के माध्यम से निर्णय करे। फिर ज्ञानस्वभाव रूप उस आत्मा का अनुभव करने के लिए पर संयोगों को अपने ज्ञान में बाद देवे और उन भावों को उन-उन ( पर- संयोगो) के ही खाते में डाले । द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकर्म को बाद देने के पश्चात जो शेष बचा केवल चित्त - चमत्कार मात्र अपना स्वरूप, उसका विचार करे। वहां अनेक प्रकार से निज स्वरूप में, निज चैतन्य सत्ता में अहम्बुद्धि धारे कि मैं शुद्ध हूँ, चिदानंद हूँ ज्ञानस्वरूप हूँ, इत्यादि ।
पर
ऐसा विचार होने पर अपने आप आनन्द तरंग उठे, रोमांच हो आवे अभी तक भी विचार वा विकल्प ही है। निज अनंतगुणों को आत्मद्रव्य में अभेद करें, और पंचेन्द्रियों तथा मन के द्वारा जो ज्ञानोपयोग बाहरी पदार्थों में जा रहा था, उसे उस अभेट
अखण्ड ज्ञानपिण्ड
सत्तात्मक आत्मद्रव्य के
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