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को भी नयपक्षों के अवलम्बन से हटा कर उसी अपनी
सम्मुख करें श्रुतज्ञान. सत्ता के 'करे। तब अपने मति सम्मुख
श्रुतज्ञान की पर्याय में अन्य ज्ञेय नहीं होकर अपना निजात्म स्वभाव ही ज्ञेयपने को प्राप्त हुआ विज्ञानघन परमात्मा अपने रूप
अपने में प्रत्यक्ष अनुभव में आता है।
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चौथे व पाँचवें गुणस्थानों में
निचलीभूमिका में स्थित साधक के तो स्वानुभाव में स्वभाव का स्पर्श मात्र ही हो पाता है । परन्तु, स्पर्श होते ही जो बात बनती है वह हमारी पकड़ में आती है सब जगत मिट जाता है, शरीर भूल जाता है, मन भूल जाता है, किन्तु फिर भी चैतन्य का दीपक भीतर जलता रहता है। शरीर आपको सामने पड़ा हुआ अलग दिखाई देगा | अभ्यासी साधक के कभी कभी ऐसा अनुभव अपने प्रयास के बिना भी घटित हो जाता है, अचानक हम शरीर से अलग हो जाते हैं, शरीर अलग दिखाई देने लगता है। न कोई विकल्प रह जाता है, न कोई चिन्ता । ऐसा लगता है कि अब यह चेतना शरीर से अलग ही रहेगी। ऐसी घटना समाप्त होने पर भी दिन भर उसका असर बना रहता है।
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ऐसी विरक्ति बनती है जैसी पहले कभी नहीं हुई। फिर शरीर का जन्म इसका जन्म नहीं रहता, और न शरीर की मृत्यु इसकी मृत्यु होती हैं। मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है। इसने मृत्यु को प्रत्यक्ष जो देख लिया है जो मृत्यु में घटता है वह आज साक्षात् हो गया है। यह दशा ज्यादा देर नहीं रहती। यदि जल्दी जल्दी अनुभव हो तो विरक्ति बनी रहती है, परन्तु यदि बहुत दिनों तक न हो तो पुरानी याद के तुलय ही रह जाता है।
ज्ञानी की दशा
जानी को स्वभाव के आनंद का अनुभव हुआ है स्वरूप के आनंदसागर में गोते लगा कर, डुबकी मारकर, वह बारम्बार शीतलता का अनुभव करता है, और जब
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