________________
इनका अभाव ही सुख है, और इनका सर्वथा अभाव परम सुख है । अथवा, कहना चाहिए कि
जीवात्मा - रागद्वेष = परमात्मा
या, जीवात्मा-विषयकषाय = परमात्मा ।
धर्म, अधर्म, पुण्य और पाप
राग-द्वेष के अभाव का उपाय धर्म मार्ग है, राग-द्वेष का अभाव जितने अंशों में हो उतना धर्म है और इनका पूर्णतया अभाव हो जाना ही धर्म की पूर्णता है। राग-द्वेष का होना अधर्म है, और उसके दो भेद हैं- एक पाप और दूसरा पुण्य । द्वेष तो तीव्र हो या मंद, सब तरह से अशुभ या पाप ही है; राग की तीव्रता पाप है और मंदता शुभ अथवा पुण्य है। दूसरे शब्दों में कहें तो रागद्वेष का अभिप्राय रखकर कुछ भी करना, तीव्र राग-द्वेष का सद्भाव होने की वजह से पाप-कार्य है; जबकि राग-द्वेष के अभाव के अभिप्राय से की गई प्रवृत्ति, मंद राग का सद्भाव होने से पुण्य कार्य है।
राग-द्वेष की तीव्रता में जो भी काम होते हैं वे सब पाप-रूप होते हैं, जैसे हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, आसक्ति, अन्याय, अभक्ष्य सेवन आदि । राग-द्वेष की मंदता में जो कार्य होते हैं, वे हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति, न्यायपूर्वक प्रवृत्ति आदि; चूंकि ये शुभ - रूप हैं इसलिये पुण्य-बंध के कारण हैं । और, राग-द्वेष के अभाव में तो प्रवृत्ति का अभाव है अतः जीव के दोनों ही प्रकार के कार्य न होकर वह मात्र वीतराग ही रहता है।
धर्म की परिभाषायें विभिन्न, किन्तु केन्द्रबिन्दु एक : रागद्वेष का
अभाव
धर्म की चार मूल परिभाषायें हैं - ( १ ) सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की एकता धर्म है; (२) वस्तु-स्वभाव धर्म है - यहाँ आत्म-वस्तु का प्रसंग है, अतः आत्म-स्वभाव धर्म है; (३) उत्तमक्षमादिक दशलक्षण धर्म है; तथा (४) अहिंसा परम धर्म है। विचार करने पर हम पाते हैं कि ये चारों ही परिभाषायें रागद्वेष के अभाव को अर्थात् वीतरागता का लक्ष्य करती हैं।
( ७ )