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राग-द्वेष आत्मा की अशुद्धता है; उस अशुद्धता को अपना विकार जान कर उसके अभाव का निर्णय करना, यह सम्यग्दर्शन है। उस अशुद्धता के अभाव का उपाय है राग-द्वेष से भिन्न अपने चैतन्य-स्वभाव को अपने-रूप अनुभव करना, यह सम्यग्ज्ञान; और अपने चैतन्य-स्वभाव में स्थिरता, यह सम्यक्चारित्र है। जितनी स्वभाव में स्थिरता, उतना राग-द्वेष का अभाव, उतना धर्म है। पूर्ण रूप से स्थिर होने पर समस्त राग-द्वेष का अभाव, यह सम्यक्चारित्र की पूर्णता है, धर्म की पूर्णता है। यही वीतरागता है तथा आत्मस्वभाव भी यही है।
क्रोध कषाय का अभाव क्षमा है, मान कषाय का अभाव मार्दव है, माया कषाय का अभाव आर्जव है, और लोभ कषाय का अभाव शौच है, इत्यादि। इस प्रकार धर्म के दश लक्षणों के द्वारा भी कषायों अथवा राग-द्वेष के अभाव को ही बताया गया है।
राग-द्वेष का होना वह आत्म-स्वभाव का घात होने से हिंसा है, चूंकि राग-द्वेष आत्मा के वीतराग स्वभाव के घातक हैं। उन राग-द्वेष के अभाव में आत्म-स्वभाव का घात नहीं होता इसलिये अहिंसा है। जीव-घात तो मात्र बाहरी हिंसा है जो अंतरंग में राग-द्वेष के सद्भाव में होती है-राग-द्वेष की तीव्रता में अयत्नाचार-रूप, असावधानी-रूप, प्रमाद-रूप प्रवृत्ति होती है; उस प्रमाद के फलस्वरूप बाह्य में कोई जीव मरे या न मरे, जहाँ प्रमाद-रूप प्रवृत्ति है वहाँ हिंसा अवश्य है। असली बीमारी तो राग-द्वेष है, बाहरी आचरण तो उसका प्रतिफल है; बीमारी मिटाने से उसका प्रतिफल तो अपने आप मिट जाता है। अत: यही निष्कर्ष निकलता है कि राग-द्वेष का होना ही हिंसा है, और राग-द्वेष का न होना अहिंसा है, वही धर्म है।
राग-द्वेष की उत्पत्ति का मूल कारण : शरीर का अपने-रूप अनुभव यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि राग-द्वेष की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है, वे क्यों पैदा होते हैं ? विचार करने पर हम पाते हैं कि राग-द्वेष की उत्पत्ति का मूल आधार है जीव की यह अनादिकालीन मिथ्या मान्यता कि 'मैं शरीर हूं।' यह जीव निजमें चैतन्य होते हुए, आप ही जानने वाला होते हुए भी, स्वयं को चैतन्य-रूप न जान कर शरीर-रूप जान रहा है। शरीर और स्वयं में एकपना देखता है तो शरीर से सम्बन्धित सभी चीजों में इसके