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परमात्मा होने की उत्कृष्ट संभावना विद्यमान है, और जीवाणु आदि की तरह लगभग जड़वत् रह जाने की निकृष्ट संभावना भी।
जीव की परमात्म-अवस्था की ओर उन्नति अथवा जीवाणु अवस्था की ओर अवनति, दोनों ही इसके स्वयं के पुरुषार्थ पर निर्भर करती हैं; यह उन्नति का मार्ग चुने या अवनति का, यह निर्णय इसकी अपनी स्वतंत्रता है। इतना अवश्य जान लेना जरूरी है कि मनुष्य अवस्था वह खास पड़ाव है जहाँ से इस जीव को आत्मोन्नति की यात्रा पर निकल पड़ने की सुविधा है, हालाँकि सामान्यत: सभी संज्ञी (मन-सहित) पंचेन्द्रिय जीव इस यात्रा की शुरूआत कर सकते हैं।
यद्यपि संज्ञी पंचेन्द्रिय अवस्था से ही आत्मोन्नति का पुरुषार्थ संभव है, तथापि अपनी सभी अवस्थाओं में यह जीव बीजभूत परमात्मा है। वट के बीज में मौजूद वट-वृक्ष बनने की शक्ति की तरह परमात्मा बनने की शक्ति इसमें सदा से अन्तर्निहित है जिसको इसे अपने पुरुषार्थ द्वारा व्यक्त करना है। वर्तमान में जीव दुखी है यद्यपि जीव में परमात्मा होने की उत्कृष्ट संभावना निहित है, तथापि वर्तमान में तो हम पाते हैं कि जीव दुखी है। विश्व का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और उसका प्रत्येक प्रयत्न सुख-प्राप्ति के लिये ही होता भी है, परन्तु सुख के सही/सम्यक् स्वरूप से अनभिज्ञ/अनजान होने के कारण उसके प्रयत्न भी सम्यक् नहीं होते, फलत: उसे दुख के सिवाय कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
इस जीव का दुख कैसे दूर हो, इसके लिये जिस विज्ञान का आविष्कार हुआ, उसी का नाम धर्म है। जीव दुखी है, यह बात तो प्रत्यक्ष-सिद्ध है हम सभी का अनुभव इस बात का अहसास दिला रहा है कि हम दुखी हैं। हम दुखी क्यों हैं, और उस दुख को दूर करने का क्या उपाय है, इन बातों पर विचार करना है। दुख का कारण : राग-द्वेष प्रत्येक जीव में क्रोध-मान-माया-लोभ अथवा राग-द्वेष पाये जाते हैं। यह बात