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जबकि शेष दो क्रियायें कर्म के सम्बन्ध से हो रही हैं-उसी प्रकार जैसे कि पहले दिये गये चीनी के उदाहरण में चीनी का गर्मपना पर के, अग्नि के, सम्बन्ध से था। अभी तक तो इन कर्मकृत दो प्रकार की क्रियाओं में ही अपनापना माना था, अपना होना मान रखा था, परन्तु अब हमारा अपनापना उस जानने वाले में आना चाहिए। जैसा अपनापना, जैसा एकत्व शरीराश्रित क्रिया और विकारी परिणामों में है, वैसा अपनापना, वैसा एकत्व, उनके बजाय जाननक्रिया में आना चाहिए। जिस किसी के ऐसा घटित हो जाता है उसे वास्तव में ऐसा अनुभव होता है कि चलते हुए भी मैं चलने वाला नहीं, चलने की क्रिया का सिर्फ जानने वाला हूँ; बोलते हुए भी मैं बोलने वाला नहीं, बल्कि बोलने वाले को मात्र जानने वाला हूँ; मरते हुए भी मैं मरने वाला नहीं, अपितु मरण को केवल जानने वाला हूँ। इसी प्रकार, क्रोध होते हुए भी मैं क्रोधरूप नहीं; बल्कि उसका मात्र जानने वाला हूँ; लोभादिक होते हुए भी लोभादि का करने वाला नहीं, मात्र जानने वाला हूँ; दया-करुणा आदि परिणाम होते हुए भी मैं न तो उन-रूप हूँ, न उनका करने वाला हूँ, अपितु उनका जानने वाला हूँ। मैं तो जानने के सिवाय और कुछ कर ही नहीं सकता—यही साक्षीभाव है। इस प्रकार इस जीव के 'स्व' और 'पर' के बीच भेदविज्ञान पैदा होगा तब यह शरीर में रहते हुए भी शरीर से अलग हो जाएगा, संसार में रहते हुए भी संसार उसके भीतर नहीं रहेगा।
जाननक्रिया को कैसे पकड़ें ? पहले इन तीनों क्रियाओं को एक-दूसरे से भिन्न जानना और फिर मात्र जाननपने में अपनापना-एकत्व-तादात्म्य स्थापित करना जरूरी है। यहाँ जाननपने के सम्बन्ध में यह भली-भांति समझ लेना चाहिये कि जो जानने का कार्य हो रहा है, वह कर्म-सापेक्ष क्षायोपशमिक ज्ञान का है-जो ज्यादाकम होता है, जिसमें इन्द्रियों की, मन की सहायता की जरूरत है, जो सविचार -सविकल्प है, जो ज्ञान-विशेष है-इसको नहीं पकड़ना है। अपितु, इसके माध्यम से उस स्रोत को पकड़ना है जहाँ से यह (ज्ञान-विशेष) उठ रहा है-जो ज्ञान-सामान्य है, जो ज्ञान-पिण्ड है, जो निर्विचार-निर्विकल्प है, जिससे यह जानने की लहर उठी है। जैसे सूर्य का प्रकाश आ रहा है; यद्यपि किरणों में प्रकाशत्व है, तथापि किरणों को नहीं पकड़ना है। किरणों के
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