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माध्यम से उस सूर्य तक पहुँचना है जो प्रकाश का अखण्ड पिण्ड है। किरणें तो अंश हैं जबकि सूर्य अंशी है। उसी प्रकार क्षायोपशमिक ज्ञान तो ज्ञान की एक पर्याय/अवस्था मात्र है, इसमें हीनाधिकता है, परिवर्तनशीलता है, कर्म का सम्बन्ध है-इसको नहीं पकड़ना है, बल्कि इसके माध्यम से ज्ञान के उस अखण्ड-पिण्ड में, ज्ञान-सामान्य में, अपना सर्वस्व स्थापित करना है जहाँ से यह ज्ञान-विशेषरूपी लहर उठी है; जो त्रिकाल एक-रूप रहने वाला है, जो कर्म-निरपेक्ष है। ज्ञान की पर्याय अंश है, अंशी नहीं; अंशी तो ज्ञानसामान्य है; अंशी कर्म-निरपेक्ष पारिणामिक भाव-रूप है जबकि अंश है कर्मसापेक्ष क्षायोपशमिक भाव-रूप। सामान्य को मुख्य करना है, और विशेष को गौण करके स्वयं को सामान्य-रूप अनुभव करना है।
उपर्युक्त तीनों क्रियाओं को अलग-अलग जानना तो अपेक्षाकृत आसान है, परन्तु उस जाननपने में, ज्ञातापने में अपनापना स्थापित करना मुश्किल है। फिर भी इसके लिए उपाय है-पाँच-सात मिनट के लिए अलग बैठकर हम यह निश्चित करें कि शरीर की जो भी क्रिया होगी वह मेरी जानकारी में होगी, आँखों की टिमकार भी मेरी जानकारी में होगी, बेहोशी में नहीं। शरीर की क्रिया का कर्त्ता न बनकर उसका मात्र जानने वाला बने रहना है। और यदि दो मिनट भी जानने वाले पर जोर देते हुए शरीर की क्रिया को मात्र देखने लगेंगे तो पायेंगे कि जानने वाला शरीर से अलग है। इसी प्रकार पाँचसात मिनट के लिए बैठकर मन में उठने वाले विकल्पों का कर्त्ता न बनकर मात्र जानने वाला, मात्र ज्ञाता बने रहें। मन में जो कुछ भी भाव चल रहे हों, जो कुछ भी विचार उठ रहे हों, उनको देखते जायें, देखते जायें-चाहे शुभ विचार हों या अशुभ, उनका कोई भी विरोध न करें कि ऐसा क्यों उठा और ऐसा क्यों नहीं उठा। हमारा काम है मात्र जानना, उस जाननेवाले पर जोर देते जायें। हम उन विचारों के न तो करनेवाले हैं, न रोकने वाले, हम तो उन्हें मात्र जानने वाले हैं, बस अपना काम करते जायें। हम मन नहीं, हम देह नहीं, जरा भीतर सरक जायें और देखते रहें। मन को कहें—'जहाँ जाना हो जा, जो विचार-विकल्प उठाने हों उठा, हम तो बैठकर तुझे देखेंगे।' लोग कहते हैं कि मन हमारे वश में नहीं है, परन्तु यदि हम केवल दो मिनट के लिए मन को न रोकें-जहाँ वह जाये उसे जाने दें, बस इतना ध्यान रहे कि
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