________________
पहले दो काम तो नाशवान हैं जबकि जाननपना त्रिकाल रहने वाला है। स्वप्न आने पर भी जानने वाला उसी समय जान रहा है, तभी तो सवेरे उठकर वह अपने स्वप्न को कह सकता है। आज बड़ी अच्छी नींद आई. इसको भी जानने वाले ने जाना; एक नींद ले रहा था और दूसरा उसको भी
जान रहा था।
ये तीनों क्रियायें एक साथ हो रही हैं इस बात का आज तक हमें ज्ञान ही नहीं था। चूंकि जाननक्रिया हमारी पकड़ में नहीं आई, केवल शरीर की क्रियायें एवं मन की क्रियायें अर्थात् शुभ-अशुभ भाव ही पकड़ में आ रहे हैं इसलिए शरीर की क्रिया और राग-द्वेषरूप परिणामों को ही हमने अपना होना, अपना अस्तित्व समझा। स्वयं को इन्हीं का कर्ता माना। इनके अतिरिक्त कोई जाननक्रिया भी हो रही है और उसका स्तर इनके स्तर से भिन्न है, यह बात कभी समझ में नहीं आई। फल यह हुआ कि धर्म के लिए हमने एक ओर तो परिणामों को बदलने की चेष्टा की - अशुभ से शुभरूप बदलने का प्रयत्न किया, और दूसरी ओर शरीराश्रित क्रिया को अशुभ से शुभरूप बदलना चाहा । यदि शरीर और मन की ये क्रियायें बदल गईं तो हमने इस बदलाव को ही धर्म मान लिया और अहंकार किया कि मैंने ऐसा कर लिया। इस बात को तनिक भी न समझा कि ये दोनों ही पर - आश्रित क्रियायें हैं, आत्मा की अपनी स्वाभाविक क्रिया नहीं है, अत: इन पराश्रित क्रियाओं के बदलने मात्र से धर्म होना कदापि सम्भव नहीं; धर्म तो आत्मा का स्वभाव है, उसका सम्बन्ध तो उस तीसरी, स्वाभाविक क्रिया से है. जाननक्रिया से है। यह नासमझी, यह गलती उस जाननेवाले की ही है कि उसने अपनी स्वाभाविक क्रिया को न पहचान कर, विकारी परिणामों और शरीराश्रित क्रियाओं में ही अपनापना मान रखा है, यही अहंकार है, यही मिथ्यात्व है, यही संसार है, जो तब तक नहीं मिट सकेगा जब तक यह जीव अपनी स्वाभाविक क्रिया को नहीं जानेगा ।
जाननक्रिया : जीव की स्वयं की अपनी
धर्म के मार्ग पर शुरुआत के लिए जरूरी है कि हम यह निर्णय करें कि जाननक्रिया तो मेरे ज्ञाता स्वभाव से उठ रही है, वह मेरी स्वयं की क्रिया है।
(33)