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बिल्कुल इसी प्रकार इस जीव की स्थिति है। आत्म-विज्ञान के सर्वप्रथम और मौलिकतम सूत्र के रूप में भगवान महावीर ने बतलाया कि अपने उस चैतन्य-सामान्य का आश्रय लेकर ही यह जीव अन्तत: राग-द्वेष का अभाव कर सकता है। मनुष्य, पशु आदि शरीरों का सम्बन्ध और क्रोध-मानादि विकारों का होना तो मात्र उस चेतनवस्तु के विशेष हैं, आत्मोन्नति का मार्ग तो इन अनित्य-नाशवान अवस्थाओं से भिन्न चैतन्य-सामान्य में तादात्म्य, अपनापना स्थापित करना है। इसने भी स्वयं को न पहचान कर, कर्मजनित रोल को ही वास्तविक मान लिया है, इसलिए दुखी-सखी हो रहा है। दुख से बचने के लिए इसने समय-समय पर उन रोल्स को बदलने की चेष्टा तो की, और कर्म के उदय के अनुसार कदाचित् इसका रोल बदल गया तो इसने स्वयं को सुखी मान लिया, परन्तु इन रोल्स से भिन्न जो अपना स्वरूप है उसे जानने की चेष्टा नहीं की। यदि करता तो रोल में असलियत का भ्रम मिट कर वह मात्र नाटक रह जाता। फिर इसे चाहे जो भी रोल्स मिलते इसका उनमें दुखी होना असंभव था।
जीव की इस विडम्बना को देखकर भगवान् महावीर ने बतलाया कि तू यदि कर्मकृत रोल में असलियत मानेगा तो नये-नये रोल्स करने के लिए कर्मों का संचय करता रहेगा, उन कर्मों के अनुसार तुझे रोल करने पड़ेंगे। पुनः यदि उनमें अपनापना मानेगा तो फिर नये रोल्स के कारणभूत कर्मों का संचय होगा। तेरी यही दशा अनन्त काल से चली आ रही है। यदि तू स्वयं को पहचान कर कर्मजनित रोल को मात्र रोल समझ ले, तो फिर न तो तू ही उस रोल की वजह से दुखी-सुखी होगा और न ही तुझको नये रोल्स करने के लिए कर्मों का संचय होगा। और इस प्रकार अन्त में जब पूर्वसंचित कर्मों के द्वारा रचा हुआ तेरा अन्तिम रोल भी समाप्त हो जायेगा तो फिर इन कर्मजनित रोल्स से सर्वथा रहित जैसा तू निज में है वैसा ही रह जायेगा।
इस बात को तनिक विस्तार से समझना ठीक होगा। यह जीव निरन्तर कर्म के अनुसार मनुष्य-देव-पशु-नारकी का रोल कर रहा है। चूंकि अपने को नहीं जानता कि मैं चैतन्य हूँ, अत: उस रोल को ही अपना स्वरूप मानता है
और दुखी-सुखी होकर नवीन कर्मों का संचय करता है। इन कर्मों के फलस्वरूप फिर नया रोल मिलता है। यदि अच्छे कर्मों का संचय किया तो
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