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और क्रोधादि को ही अपना मान रखा है, चैतन्य को अपना नहीं माना है, तो हमने 'वह' को न जानकर, 'यह' को ही 'वह' माना है—'यह' नाशवान है, अत: 'यह' के नाश से 'वह' का नाश मान रहे हैं। सही ज्ञान होने के लिए 'यह+वह' का ज्ञान होना जरूरी है। सिर्फ 'वह' को ही मानें तो भी सही ज्ञान नहीं है, सिर्फ 'यह' को ही मानें तो भी सही ज्ञान नहीं है। 'वह' को 'यह' माने, या 'यह' को 'वह' मानें, या 'वह' को अलग और 'यह' को अलग मानें, तब भी वस्तुस्वरूप का सही ज्ञान नहीं है। 'यह' और 'वह' एक साथ, एक समय में होते हुए अलग भी हैं; और 'वह' के बिना 'यह' नहीं, 'यह' के बिना 'वह' नहीं है। परन्तु 'वह' 'यह' नहीं है और 'यह' 'वह' नहीं है। जो 'वह' को नहीं जानता, उसके 'यह' में ही 'वह-पना' आ जाता है।
अत: उसको 'यह' में 'वह' छुड़ाने के लिए 'वह' का ज्ञान कराने का प्रयत्न किया जाता है। और जो लोग 'यह' को नहीं मानते, उसे मिथ्या, भ्रम, माया
आदि कहते हैं, उन्हें 'यह' का ज्ञान कराने का प्रयत्न किया जाता है, जिससे कि दोनों ही प्रकार के लोग 'यह+वह' का ज्ञान कर लें, आत्म-वस्तु के सही ज्ञान को प्राप्त हो जायें। सही ज्ञान करके 'यह' से सरकना है और 'वह' रूप रहना है, यही आनन्द का मार्ग है।
विशेषों का संसार : नाटकवत् वा स्वप्नवत् मान लीजिये कि कोई अभिनेता अभिनय करते हुए अपने असली रूप को भूल जाता है, नाटक या फिल्म में अपने पार्ट या रोल को ही वास्तविकता मान लेता है, और फलस्वरूप दुखी-सुखी होने लगता है। तो फिर उसका वह दुख कैसे दूर हो ? उपाय बिल्कुल सीधा है। यदि उसे अपने निजरूप का-जिसे वह अभिनय के दौरान भुला बैठा है—फिर से अहसास करा दिया जाये, तो उसका रोल वास्तविक न रह कर केवल नाटकीय रह जायेगा
और अभिनय करते हुए भी उसका भीतर में दुखी-सुखी होना मिट जायेगा। यही सही उपाय है उसका दुख दूर करने के लिए। रोल को बदलना सही उपाय नहीं है क्योंकि रोल्स तो गरीब का, अमीर का, निर्बल का, बलवान का मिलते ही रहेंगे। परन्तु यदि अपना खुद का अहसास बना रहे तो चाहे जैसा भी रोल हो उसको अदा करते हुए भी दुखी नहीं होगा।
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