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पुरुष-स्त्री होना, युवा-वृद्ध होना, स्वस्थ-अस्वस्थ होना, सुंदर-कुरूप होना—ये सब 'यह' के हिस्से हैं। इन सबके परे कुछ है; यदि उसको अनुभव किया तो वह' का स्पर्श होता है।
हम एक मृत संसार में रहते हैं। वह मृत संसार ही 'यह' है; जो मरण से रहित है वह 'वह' है। उसको परमात्मा कहना भी उस पर लेबल लगाना है। यदि हम निर्विकल्प अवस्था में हैं तो 'वह' हैं, और यदि विचार में हैं तो 'यह' हैं। जब विचार में हैं तो अपनी आत्मा में नहीं हैं। जितने गहरे विचार में जाते हैं उतने ही 'वह' से दूर हो जाते हैं। ____समाज हमारे 'वह' में रस नहीं लेता, समाज तो 'यह' में रस लेता है। 'यह' हमारे अहंकार से मिला हुआ है-अपने नाम से, अपने माँ-बाप और परिवार से, अपनी शिक्षा से, अपने पद से, अपने सम्प्रदाय से, अपनी भाषा से, अपने देश से जुड़ा हुआ है। ये सब हमारे 'यह' के हिस्से हैं न कि 'वह' के। 'वह' किसी से जुड़ा हुआ नहीं है, 'वह' किसी से सम्बन्धित नहीं है, 'वह' तो एक अकेला है। 'वह' तो अपने आप में परिपूर्ण है। जब एक बार 'वह' अनुभव में आ जाएगा तो 'यह' ऊपरी दिखावा मात्र हो जाएगा। फिर सब जगह 'वह' ही 'वह' दिखाई देगा। तब 'यह' दूर हो जाएगा और 'वह' नजदीक हो जाएगा। हमारे लिये ज्वलंत प्रश्न यह है कि हम 'यह' में जी रहे हैं या वह' में। यदि हमारा सर्वस्व 'यह' में है तो हमारा दुख किसी भी तरह नहीं मिट सकता; और, यदि हम 'वह' में हैं तो हमारे दुखी होने का कोई कारण ही नहीं है।
अगर कोई व्यक्ति नाटक में पार्ट कर रहा है तो वहाँ पर जो पार्ट है, वह 'यह' है। और जो पार्ट करने वाला व्यक्ति है वह 'वह' है। रोल अदा करते हुए भी उसे वह कौन है इसका ज्ञान है। 'यह' की लाभ-हानि, यशअपयश, जीवन-मरण होते हुए भी उसे कोई सुख-दुख नहीं, क्योंकि उसने 'वह' में अपने को स्थापित कर रखा है। उसके लिए 'वह' नजदीक है और 'यह' दूर है। इसी प्रकार घड़ा 'यह' है और माटी 'वह' है। दोनों साथ-साथ हैं, परन्तु घड़े के न रहने पर भी माटी का अभाव नहीं है। घड़े के फूटने पर भी माटी ‘वही' रूप से कायम है। इसी प्रकार आत्मा की स्थिति है। आत्मा का चेतनपना 'वह' है और क्रोधादि अवस्थाएँ 'यह' हैं। यदि हमने शरीर को
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