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धनवान का, राजा-महाराजा का, नीरोग-स्वस्थ-सुन्दर-बुद्धिमान व्यक्ति का, इन्द्र-देवेन्द्र आदि का रोल मिल जाता है। यदि बुरे कर्मों का संचय किया तो गरीब-दरिद्र का, रोगी-अपंग-कुरूप-मूर्ख व्यक्ति का, पशु-पक्षी आदि का रोल मिल जाता है। जो भी अच्छा-बुरा रोल मिलता है वह इस जीव की इच्छा के आधीन नहीं मिलता, अपितु इसके पूर्वकृत कर्मों के आधीन ही मिलता है। चूंकि यह जीव स्वयं को, निजरूप को नहीं जानता, अत: उस कर्मकृत शरीर को मान लेता है, कि 'यही मैं हूँ और उसी के साथ समूचे परिवार में, समूची बाह्य सामग्री में भी अपनापना मान लेता है। अपनी इस मान्यता के वशीभूत हुआ यह जीव जब इनके वियोग को प्राप्त होता है तो 'मेरा अमुक मर गया', 'मैं मर गया', 'मेरी अमुक चीज चली गयी', 'मैं लुट गया' इत्यादिक प्रकार से रोता है, दुखी होता है। अथवा किसी व्यक्ति-वस्तु का वियोग इसे न भी हुआ हो तो 'अमुक की प्राप्ति नहीं हुई' इस प्रकार किसी न किसी पदार्थ का अभाव इसको खटकता रहता है, जैसे कि स्वास्थ्य, धन, पद, प्रतिष्ठा का अभाव या स्त्री, संतान आदि का अभाव। इस प्रकार जब यह दुखी होता है तो वर्तमान अवस्था को दुख का कारण मानकर दूसरी अवस्था प्राप्त करने की चेष्टा करता है। जैसे कि गरीबी को दुख का कारण मानता है तो धनवान बनना चाहता है। परन्तु यह नहीं समझता कि इन अवस्थाओं में बदलाव होना भी पूर्वसंचित कर्मों के आधीन ही है। अत: यदि संयोगवश कर्मों का अनुकूल उदय हुआ और इसकी कोई एक मनचाही बात कुछ समय के लिये हो भी गई तो फिर 'मेरे करने से ही यह हुआ' ऐसा मानकर अहंकार करता है और यदि इच्छा के अनकल उदय का संयोग नहीं बना और इसका मनचाहा नहीं हुआ तो फिर यह विषाद करता है। इस प्रकार अपने ही अहंकार और विषादयुक्त्त परिणामों के द्वारा पुन: नवीन कर्मों का संचय कर लेता है, जिनके फलस्वरूप पुनः शरीर आदि की प्राप्ति होती है और यह चक्कर बराबर चलता रहता है।
इस चक्कर को तोड़ने का उपाय इस जीव ने न तो कभी समझा और न कभी किया। इसने कभी भी यह चेष्टा नहीं की कि मैं निजरूप को जानूं। यदि यह स्वयं को जान ले तो फिर कैसा भी कर्मजनित पार्ट क्यों न करना पड़े, उसमें अहंकार-ममकार होगा ही नहीं। चाहे जैसी भी बाह्य अवस्था हो वह इसको दुखी नहीं बना सकती। जब पार्ट ही करना है तो चाहे जिसका
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