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दिगम्बरियोंको तो बड़ा भारी लाभ हुआ जो अनायास उनका भर प्राचीन सिद्ध हो गया । अरे ! जिनकल्प पहले था तभी तो शिवभूति गुरुके मुखसे उसका कथन सुनकर उसके धारण करने में निचल प्रविज्ञ हुआ। इसमें उसने नवीन मत क्या चलाया ? जो पुराना था, जिसे तुम लोग उच्छेद हुआ बताते हो वह नवीन तो नहीं है। नवीन उस हालतमें कहा जाता जब कि जिनकल्पको जैनशास्त्रों में आदर न मिलता । सो तो तुम भी निर्वाद स्वीकार कर चुके हो। उसमें उस समय तुम्हारा विरोध भी तो यही था न ? जो कलियुगमें इसका व्युच्छेद होगया है इसलिये धारण नहीं किया जा सकता। और यही कहकर शिवभूतिको समझाया भी था । यदि तुमने उसे फलियुगकं दोप मात्र से देय समझकर उपेक्षा की तो हम तो यही कहेंगे कि तुम्हारी शक्ति इतनी न थी जो उसे धारण कर सको ? अस्तु, परन्तु केवल तुम्हारे धारण न करनेसे मार्ग तो बुरा नहीं कहा जा सकता। भला ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो एक मिध्यादृष्टिकी निन्दासे पवित्र जैनधर्मको बुरा समझने लगेगा |
कदाचित्कहोकि - शिवभूतिने जो मत धारण किया है वह जिनकल्प भी नहीं है किन्तु जिनकल्पका केवल नाम मात्र है। वास्तवमें उसे कोई ओर ही मत कहना चाहिये ।
यह कहना मी ठीक नहीं है और न उस ग्रन्थ ही से यह अभिप्राय निकलता है। वहां तो खुलासा लिखा हुआ है कि - जिनकल्पका व्युच्छेद होनानेसे कलियुगमें वह धारण नहीं किया जा सकता। इस विषयको देखते हुये दिगम्बरियोंका श्वेताम्बरियोंके बावत जो उल्लेख वह बहुत ही निराबाध तथा सत्य जचता है। बड़ी भारी बात तो यह है कि जैसा दिगम्बरी लोग श्वेताम्बरियोंकी बाबत लिखते हैं उसी तरह बे भी स्वीकार करते हैं जरा देखिये तो
संयमो जिनकल्पस्य दुःसाध्योऽयं ततोऽधुना । व्रतं स्थविरकल्पस्य तस्मादस्माभिराश्रितम् ।।
तथा
'दुर्द्धरो मूलमार्गोऽयं न घर्तुं शक्यते ततः ।