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कालिकाचार्यकथा।
१७१ सौधर्मनाथेन सविस्मयेन, पृष्टं जगन्नाथ ! निगोदजीवान् ।
कोऽप्यस्ति वर्षेऽपि च भारतेऽस्मिन्, यो वेत्ति व्याख्यातुमलं य एवम् ॥६०॥ पछइ इंदिइं परमेश्वर कन्हलि पूछिउँ, “भगवा(च)न् । पसाउ करी हवडानइ कालि भरतक्षेत्र माहि तेहवु कोइ भाचार्य राइ, जे निगोदनु विचार तम्हारी परिई कहीनइ प्रीछवइ !" ॥६॥
समादिदेश प्रभुरस्ति शक्र 1, श्रीकालिकार्यः श्रुतरत्नराशिः।
श्रुत्वेति शक्रः प्रविधाय रूपं, वृद्धस्य विमस्य समाययौ सः ॥६१|| श्रीसीमंधरस्वामिई कहिउं, "अहो इन्द्र ! भरतक्षेत्रमाहि श्रीकालिकसूरि श्रुत सिद्धांतनु समू(मु)[द], तेणिई भरिउ परिउ छइ ते निगोदनु विचार अम्हारी परिई कहइ । पछ[इ] इंद्र श्रीसीमंधरस्वामि या(वां)दीनइ वृद्ध वडउ ब्राह्मनूं रूप करी धूजतु कांपतु हाथि लाकडी एहवं रूप करी कालिकसूरि कन्हलि आविउ ॥६॥
विमोऽथ पप्रच्छ निगोदजीवान , मूरीश्वरोऽभाषत वाननन्तान् ।।
असंख्यगोलाश्च भवन्ति तेषु, निगोदसंख्या गतसंख्यरूपाः ॥६॥ प्रामाणिइं श्रीकालिकसरि कन्हणि(लि) निगोदना जीवानु विचार पूछिउ । श्रीकालिकमरे कहिउं; “ रोमनइ भणीई भसंख्याता गोला इसी संज्ञा कहीइ । तेणिइ एकेकइ गोलइ असंख्याता निगोद कहवाइं। एकेकइ निगोदि अनंता जीव कहवाई"। इसी परिइं विचार कहिउ ॥६२॥
श्रुत्वेति विप्रो निनमायुरेवं, पप्रच्छ मे शंस कियत्ममाणम् ।
अस्तीति सिद्धान्तविलोकनेन, शक्को भवान् कालिकमरिराह ॥३३॥ ते निगोदनु विचार सांभल्या पूठिई ब्राह्मणिइं गुरु कन्हलि पूछिउ; " भगवन् ! हुं वडु थिउ सकउ नही। बेटा बेटी कलत्र परिवार भक्ति न करई । गाढउ दुखीउ छउ आऊनु पतीइ नही । करउँ किसिउ ! । एकवार कहउ हजी मझनई केतलु भाऊ थाकइ ! । एकवार कृपा करी कहउ" | श्रीकालिकसूरि जोवा लागा । जोतां जोतो नव रस केतले संख्या लाभइ । जोता जोतां पल्योपमे न रहइ । बिहुँ सागरोपमि जई रक्षा । पछइ कहिउ तउ ब्राह्मण तु न हुइ । तुं सौधर्मेन्द्र ए वातनु मिश्वउ जाणिज्यो ॥६३६
कृत्वा स्वरूपं मणिपत्य मूरि, निवेध सीमन्धरसत्पशंसाम् ।
उपाश्रयद्वारविपर्ययं च, शक्रो निजं धाम जगाम हृष्टः ॥६४॥ पछह इन्द्रिई आपणुं रूप प्रगट कीर्छ । महात्मा विहरवा गिआ हुंता, तेणिइ समइ इंद आविउ किम जाणोइ ! तेह भणी इन्द्रिई पोसाल, वारणुं फेरबीनई इन्द्र गिउ इन्द्र महात्मा आवता लगइ न रहिउ । एतला कारण महात्मा इन्द्रन रूप देखी तपवडई निआ' बांधइ । एह कारणई पोसाल बार] फेरीनई गिउ ॥६॥
श्रीमत्कालिकसूरयश्चिरतरं चारित्रमत्युज्ज्वलं,
संपाल्य प्रतिपच चान्त्यसमये भक्तमतिज्ञा मुदा । शुद्धध्यानविधानलीनमनसः स्वर्गालयं ये गता
स्ते कल्याणपरम्परां श्रुतघरा यच्छन्तु संवेऽनघे ॥६५॥
इति श्रीकालिकाचार्यकथा समाप्ता । श्रीतपागच्छवृद्धशालायां लिखिता ॥ श्रीकालिक चिरकाल आपणुं चारित्र निरतीचार पाली छेहडा अण
द्धनिर्मल ध्यान पंच परमेष्ठिर्नु स्मरण करता जीर्णदेह मूंकीनई स्वर्गि पुहता । ते श्रीकालिकसरि समस्त श्रीसंघनई अनेक कल्याण मांगलिफमाला विस्तारउ ॥६५॥
इति श्रीकालिकाचार्यकथा समाप्तः(प्ता) !! पं० श्रीहीरत्नगणि ॥
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