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कालिकाचार्यकथा |
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— ते कालिकाचार्य विहारक्रम करता भविक जीवि प्रतिबोधता उजेणी नाम नगरी पहुता । हवइ सरसती बहिनि पण भाईनइ पूठि दीक्षा लेई प्रवर्तनी पदइ वर्तमान विहरती ते पणि तत्र पहुती ||९|| अह तत्थ नरवरं (रि) दो, गहभिविद्यासुसाइणसुरं (रिं) दो | नामेण गद्दभिल्लो, इत्थी लोलो सय (या) वसइ ॥ १०॥
—— अथानंतर उजेणीनयरीनायक गर्दभी विद्यानी भली साधना करी सुरेन्द्र भणीए इन्द्र महाराज समान बलिष्ट पराक्रमी गर्दभिल्ल नाम राजा स्त्रीलोलुप सदा प्रवर्त्तः ॥ १० ॥
काममयपरवसेणं, रइरूपसमा सरस ( स ) ई तेण ।
दिट्ठा नि(दु) ट्ठेण तओ, हीरंती विore बाला ॥ ११ ॥ ---ते गर्दभिल राजा अन्यदा प्रस्तावि क्रीडा निमित्त नगर बाहरि वनमाहि जेतलइ पहुंचइ, तेतलइ ते महासती सरस्वती प्रवर्त्तिनी रूपइ ते रंभा तिलोत्तमा समा नगरमाहि आवती देखी। राजा श्रीगमिल कंदर्परूप जे मदाति करी परवस हु हु चीतवड; " स्युं जगमाहि कंदर्पदेव नथी ? जेह भगी एहवी सुरूप श्री सुसील ? " तिणइ अति पापिष्ट ते महासती हरी । ते महासती तिवारइ हम विलाप करवा लागी ॥ ११ ॥ सा ते विलाप -- हा सुधर ! हा कालयवरी !, मह रक्ख रक्ख एयाउ । जिणसासम्म जम्हा, उड्डाहनिवारणं साहु ||१२||
इम चतवी,
- भ्रात ! अहो श्रुतधर ! अहो शासननायक ! तुम्हा हुंता मुझनइ ए पापिष्ट लेइ जाइ छह, एह हुँती मुझनइ राखउ, जेह्र भणी जिणसासणनुं उह निवारिखं चारु भलुं । सासनना विद्वेषीनइ बोधिनास । अनंत संसारीपणुं बोलू । यतः --
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उareeroगाणं, बोहनासो अनंतसंसारो " |
जिनशासनना उड्डाहकारक मनुष्यनइ बोधि कहतां सम्यक्त्वरो नास अनंतां संसारीपणो बोलउ ॥ १२ ॥
अंतेरम्मि णीया, तेण नरे (रिं) दाहमेण अह सूरी ।
संजुओ (लग्गो) पडिबोहणवयणं तस्सेवमक्खायं ||१३||
-- तिणइ नरिदाश्रमइ इम विलाप करती महासती अंतेउरमाहि आणं न्याय मजादा मूकीनइ । यतः --
किमु कुवलयनेत्राः सन्ति नाकं न नार्यः ?, त्रिदशपतिरल्यां तापसीं यस्त्वषेवि ।
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हृदयतृणकुटीरे दीप्यमाने स्मराग्ना
बुचितमनुचितं वा वेति किं पण्डितोऽपि ? "+ ॥
- किसउ कमलसारीखा नेत्र छइ एहवी इन्द्राणी थकड़ विसपति कहतां इंद्र अहिला जे तापसी जे सेवी | हृदय कहितां हिया रूपीया तृणकुटीर छापरउ तिहां कंदर्परूप अग्नि लागइ हुँइ उचित अनुचित भली पाडुई बात न जाण । पंडित कोई ----
"विकलयति कलाकुशलं, इसति [ शुचिं ? ] पण्डितं विडम्बयति । अधरयति धीरपुरुषं, क्षणेण मकरध्वजो देवः " ॥
+ मूलादर्श एताशुद्धो पाठः-
किम कुवलयनेत्रा संत निनाकनाकनार्ज त्रिदशपतिरहिलां तापसी यस्तिषेवि । हृदयतृणकुटीरे दीप्यमानात्मराग्नावुचितिमनचितं वा वेत्त क पण्डितोऽपि ॥
" Aho Shrutgyanam"