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श्रीकल्याणतिलकगणिविरचिता -विकल करइ कलावंतनइ, पवित्रनइ हसइ, पंडतनइ विडंबइ, धीरवंत पुरुषनइ अधीर करइ, क्षण एकमाहि मकरध्वज कंदर्प देवता ॥
___ इम कामातुर ते गर्दभिल्ल जाणी कालिकाचार्य श्रीसंघ संयुक्ता तहं पासि जई तेहनइ प्रतिबोधचा निमित्ति अनेक वचन कहा ॥१३॥ सा ते वचन
__ अत्यि तुह सयसहसं(सं), नरिंददुहियाण रूववंतीणं ।
ताहि चेव [न] तितो, ता एयाए कहं तित्ती ? ॥१४॥ ---राजन् ! ताहरइ अंतेउरं हंसगतिगामणी जनमनमोहनी रूपई देवांगना नाम दउ रती एहवी राजानी पुत्रीना सत सहस्र हुतइ जउ तुझनइ तृप्ति नथी । तउ ए मस्तकमुंड श्वेतवस्त्रधारणी कुरूपलि गनीनइ ग्रहणइ किम तृप्ति हुसइ ! किन्तु पापनी वृद्धि हुसइ लोकमाहि कुजप्त, परलोकमाहि नरकफलि । तेह भणी सुख वांछइ तउ ए महासती सुसील मेल्हि ॥१४॥
सो कामग(ग्ग)हगहिओ, वयणामयसंचिओ [वि] न हु भिन्नो
तेल्लकुडे जलबिंदु ब्च, तओवाय कुणइ मरी ॥१५॥ ---ते राजा कामरूपी अजगर तणइ करी विकल हुओ। आचार्यना वचनामृत जलइ साँचिओ पणि भेदणउ नही । सीपरि चोपडइ घडइ पाणीना बिंदुनी परि तिबार पछइ आचार्य उपाय कीधउ । स्यउ ते उपाय ! ॥१५॥
काउ(ऊ)ण गहिलरूचं, तो विरूवं विभासय(ए) वयणं ।
एसो राया तो कि, नत्थि हु एयस(स्स) रजु(ज्जु)सिरी ॥१६॥
-~-पछह आचार्य गहिलानु रूप करी अनेक विरूप बोलया लागउ । स्या ते विरूप वचन ? । ए राज्य तउ स्यु ! ए राजो समूल उन्मूलीसि । हुं भिक्षाचर तउ सू ? एहनइ सर्वथा राजलक्ष्मी नथी ॥१६॥
एयं पयंपिऊणं, तह सगकूले तओ गओ सूरी ।
तत्य य जे सामंता, सुसाहिणो देसमासाए ॥१७॥
-इम अनेकविध वचन कही तिहां हुंती भाचार्य सगकूलनइ विषय गया । तिहां जे सामंत प्रवर्त्तद ते देशभाषाइ साखी राजाइ कहाई ॥१७॥
निवो साहणुसाही [य] ति(त)त्य एगं सुसाहिणं ।
विज्जाविनाणमंतेहं(हि), आवज्जिऊण ठिया तर्हि ॥१८॥ --जे सामंत राजानउ जे नृप ते साखानुसाखी कहाई । तिहां एक साखी राजा विद्याविना(ज्ञा)न मंत्र तंत्रे करी आवर्जी मुनि शाखीश्वर तेहनइ पास रहिया ॥१८॥
दि(द)ट्टण य कण्हमुई, पुच्छइ त सूरिणो तओ सव्यं ।
साहइ रूदाएसं, सो नरवइणो जहावुत्तं ।।१९।।
-अन्यदा प्रस्तावि ते कृष्णमुख देखी सूरि पूछइ; " राजन् ! ए सी बात ! तिवारइ ते राजा आपणा राजान घोर रौद्र आदेस जिम आवउ छड् । ते सर्व कहइ ॥१९॥
छुरियकचोलियसहिओ, लेहोऽज्ज समागओ य सो र(रु).ठो । मगइ सीसं मह तह, छन्नवइनिवाणमन्नेसि ॥२०॥
"Aho Shrutgyanam