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श्रीकल्याणतिलकगणिविरचिता अह उजाणगो तथ(त्य), पासई गुणधरं गुरुं । विणएण व(व)दई पाए, मुणई गुरुदेसणं ॥६॥
-अथानन्तर श्रीकालिककुमर बहुविध रमलिक्रीडा करतूउ अन्यदा प्रस्तावि शालिहोत्र शास्त्रोक्तलक्षणोपेत मांस--- रहितमुखमंडल मध्यप्रदेशि परिमित बेहु कर्ण अतितुच्छ मनोहरपुच्छ रोमावलि अतिस्निग्ध विस्तीर्ण पूठि, वायुनी परि चंचल चपल अतिरोसाल एहवा अश्व भेटणइ आव्या हुता । तेहे अश्वे आरूढ हुंतउ अनेकसुभटसंयुक्त वनमाहि पहुतउ । रामति क्रीडा करी जेतलह वलइ तेतलइ श्रीगुणंधराचार्य भव्य जीवनइ उपदेस देता सांभली कुमर तिहां पहुता। विनयपूर्वक गुरुना पदकमल वांदद । जेह भणी विनयस्थानक नीतिशास्त्रमाहि पुत्रनी शिक्षानइ अधिकारि ए शिक्षा कही
"विनयं राजपुत्रेभ्यः, पण्डितेभ्यः सुभाषितम् ।
अनृतं दूतकारेभ्यः, स्वीभ्यः शिक्षेत कैतवम्" ॥
-वत्स ! विनय करवानी वांछा हुइ तउ राजाना पुत्र समीपि बइस्यइ । सुभाषितनी वांछा हुइ तउ पंडितसु गोठ करे । कूडा बोलवानी वांछाइ जूयारीसुं संग करे । कपटनी वांछाइ खीनी गोठि करे । तेह भणी महांत स्वभावइ विनीत हुवइ । कुमरइ जे गुरुनी देसना सांभली । ते सांभली देसना कहइ छइ ॥
" असारो एस संसारो, जीवियं तह चंचलं ।
संज्झारागसमाणं च, जुव्वणाइ तहा मुण" ।।
-भो कुमर ! ए संसार असार, जीवितव्य असार, राज्यलक्ष्मी अस्थिर, संध्याराग समान जीवितव्य न मत्र (!)। पौत्र पुत्र कलत्रनां संबंध इम जाणी । मुविवेकी मनुष्य तरहा सतसा भणी संसार सागरमाहि बूडइ ॥६॥
इय देसणसलिलेणं, पखा(क्खा लियकलिमल(लो) मुणि(णि) भणइ ।
देह मह सुद्धचरणं, नित्थरणं भवसमुदस्स ॥७॥
-इम देसनारूपपाणी तणइ प्रवाहिइ करी धौतसर्वपायमल हुंतउ कुमर बे करकमल जोडी गुरु प्रतइ कहह । भगवन् ! मुझनइ सर्वविरत चारित्र आपउ । जे चारित्र संसारसमुद्र हुंतीउ तारइ ॥७॥
पंचहि पुरुससरहिं, पु(प)व्वईओ सो य सगुरुपासम्मि । जुगो(ग्गो)त्ति [य] नाउन(ऊणं), गुरुहि सो नियपयए ठविओ ॥८॥
माता पिता पूछी प्रतिबंध म करउ । ए अध्यवसाय घगी कर्मनी राशि क्षय गई हुइ तउ उपजइ । ते वात सांभली माता पितानइ भली परि पृच्छवी । पांचसइ सुभटसहित श्रीगुणधराचार्य समीपि दीक्षा लीधी । यत:
"दो चिय हुंति गईओ, साहसवंताण धीरपुरिसाणं ।
वेल्लहलकमलहत्या, रायसिरी अहब पव्वज्जा" ॥ -- साहसीक धीर पुरुषनी बि गति छ । विकसती कमला छइ जिहां एहयी राजलखमी भोगवइ अथवा प्रव्रज्या दीक्षा आदरइ । दीक्षा लेई ग्रहण सौख्या, आसेवना सिख्या, इसु सिख्यतउ हुंतउ कमि क्रम श्रीगुणधरा गुरे जोग्य जाणी आपणइ पाट थाप्या । श्रीकालिकाचार्य महात(न) जुगप्रधान हूया ॥८॥
विहरतो(ता) संपत्तो, उजे(ज्जे)णिए [य?] कालिगायरिओ । पवइया विहरती, तत्येव समागया भग(गि)णी ॥९॥
"Aho Shrutgyanam"