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कालिकाचार्यकथा |
भयवं भारहवासे, किं को विहु इय निगोयवक्खाणं ।
जाणइ अज्ज वि काओ, भणइ जिणो कालगायरिया ॥ १४० ॥ अन वि जाणंति जहा, परूविया जिणवरेहिं ते जीवा । तं सोउं वज्जइरो, बंमणरुवेण संपत्तो ॥ १४१ ॥ सूरिमीवं कोऊलेण पुच्छ्रेण पणमितं भयवं । झं निगोयजीवा, वक्खागह जे जिeिar ॥१४२॥
तभी ---
गोळा य असंक्खेजा, अस्संखनिगोयगोलमो भणिओ । इक्किम्मि निगोए, अनंतजीवा मुणेयन्वा ॥ १४३॥ इच्चाई समक्खाए, गुरुणा दो विसेसनाणत्थं । पुच्छर पुणो वि सूरिं, भयवं ! मह कित्तियं आएं ? ॥ १४४ ॥ परिकee जेह गिम्हामि, अणसणं तं सुणेवि उवओगं । सूरी नाणेणं, जा देह तओ पवति ॥ १४५ ॥ दिवसा - पक्खा मासा, वरिसा पलिया य जाव संजाया । दो अपरा पडिपुन्ना, तस्साउयमाणमह दठ्ठे ॥१४६॥ तो सविसेसुवओगाओ, जाणियं (उं) भणइ तं मुनिंदो वि । इंदो तुमं ति तं सोउमह हरी हरिसिओ संतो ॥ १४७॥ arrयणकिरीटधरो, होडं मणिरयणभूसियसरीरो । सूरीण पायकमलं, पणमेवं गुणइ भत्ती ॥ १४८ ॥ जय सुररयणमहोंयहि !, जय पवयणगयणभूसियमियंक ! | जय परमत्यपयासण!, जय कालयसूरि ! गयराय | ॥ १४९ ॥ इय दूसमाए जेणं, पभावणा पव
......!
॥ १५०॥
सिरसा नम॑सामि ।
साहुजणपव्वयत्यं, तओ हरी वसहिदारूम ।। १५१ ।। ... [...] वं पि हु विहरंतो, कलिडं कालं भवस्सरूवं च । काण गणाश्विरं गच्छे तो अणसणं विहियं ॥ १५२॥ स्वामितो सत्तगणं, सुमरंतो समयसारपरमिट्टि |
मसारसरीरं, सारं सुरलोमतो || १५३ || इय पवयणप्पभावण फळमजलं निसुणिऊणमइरम्मं । जिणपवयणस्स समं, पभावर्ण कुणह भो निश्वं ॥ १५४ ॥ इति कालिकाचार्यकथानकं समाप्तम् ॥ ग्रन्थामम् २११ ॥"
१ मत्र पत्रनेकप्रवेशे त्रुटितम् ।
" Aho Shrutgyanam"
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