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श्रीदशलक्षण धर्म । हो जाती है, तब फिर इसकी ओर दृष्टि उठाकर देखनेको भी जी नहीं चाहता है। ___ यह दण्डी साधु किसी सुशील स्त्रीपर आसक्त होकर उसके यहां भिक्षाके बहानेसे गया और अपनी कु इच्छा प्रगट की । स्त्री पतिंत्रता और चतुर विदुपी थी । उसका पति घर नहीं था, इसलिये उसने सोच समझकर कहा-“ महाराज ! आज मैं ऋतुवती हूं, आप कल आइये ।" साधु दूसरे दिन आया, यहां उस स्त्रीने जर्राहको बुलाकर अपने शरीरमें कई जगह फस्ते खुलवा लीं और सब लोहू इकट्ठा एक वर्तनमें रख छोड़ा और दूसरे दिन उस असाधुके आते ही वह धीरे धीरे आई। जब साधुने उसे नहीं पहिचाना और कहा-"दासी। तू अपनी मालकिनको बुला ला |" तब वह स्त्री बोली-“स्वामी महाराज! मैं ही वह स्त्री हूं।" तब भी वह न माना। निदान स्त्रीने वह सब खून लाकर दिखाया और बोली-“ महाराज ! आपके जानेके बाद मैंने फस्तें खुलवाई हैं और सब लोहू यह रखा है। कल जो रूप देख आप मोहित हुए थे, वह सब इसी बर्तनमें है, इसलिये इसे ग्रहण कीजिये । साधु यह दशा देखकर लज्जित हुआ,
और बोला-"तुम मेरी धर्मकी माता हो, यथार्थमें यह शरीर ऐसा ही घृणित और नाशवान् है। मेरा अपराध क्षमा कीजिये। अबसे मैं फिर कभी इस प्रकार दुष्ट कार्यका चितवन भी न करूँगा । तुमने मुझे आज डूबतेसे बचा लिया । मैं तुम्हारे इस उपकारका चिर कृतज्ञ रहूंगा।" इत्यादि कहते हुए चल दिया । : .. :: .
तात्पर्य यह शरीर.ही ऐसााणित वनाशवान् है तो इसके