________________
श्रीदशलक्षण धर्म ।
१५१
जीव विभाव भावों सहित रहता है, तबतक उसे शुद्धात्मस्वरूपका बोधतक नहीं होता है और वह पुद्गलादि परवस्तुओंमें ही लीन रहता है । इसीलिये जबतक पर पदार्थोंके भोगरूप विभाव भावोंका अभाव नहीं होता, तबतक स्वभावको प्राप्त नहीं होता। इसलिये जब यह इन विभाव भावों तथा क्रियाओंसे पृथक् होकर स्वरूपमें मन हुआ परमानन्दमयी अवस्थाको प्राप्त होता है सो ही इसकी यथार्थ ब्रह्मचर्यावस्था है । इसलिये ब्रह्मचर्यको कर्म कहा है, क्योंकि वह वस्तुका स्वभाव ही है ।
७६ ]
1
व्यवहार में ब्रह्मचर्य मैथुनकर्म से सर्वथा पराङ्गमुख होने को कहते हैं - अर्थात् संसारकी स्त्री मात्रको व पुरुष मात्रको, चाहे वे मनुष्य, पशु, देव आदि गतियोंके सजीव हों या काष्ठ, पाषाण, धातु आदिकी - मूर्ति व चित्रामके हों परन्तु उनको सराग भावसे नहीं देखना अथवा - उनमें पत्नी या पतिभाव न करना अथवा उनको माता, बहिन, बेटी, पिता, भाई वैटेकी दृष्टिसे देखना सो ब्रह्मचर्य है ।
यद्यपि और इन्द्रियोंके विषयोंमें लीन रहना भी अब्रह्मचर्य है कारण विषय. मात्र पौद्गुलिक विभाव परिणति है । तथापि मुख्यता से स्पर्श इंद्रियके विषय (मैथुन ) को ही अब्रह्म ग्रहण किया है, उसका कारण यह है कि और इंद्रियोंके विषयसे स्पर्श इंद्रिय के विषयकी प्रबलता देखी जाती है । कारण, अन्य इंद्रियोंके विषय इसप्रकार न तो लोकविरुद्ध ही पड़ते हैं कि जिनके सेवन करनेमें जनसाधारणकी दृष्टि बचाने का प्रयत्न किया जाय, न इतने भय वा परिग्रहकी
चिंता ही होती है । वे सहज २ थोड़ी मेहनत से ही प्राप्त होसकते
.