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उत्तम ब्रह्मचर्य ।
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सार यथाशक्ति प्रमाण अवश्य ही कर लेना चाहिये। सो ही कहा हैपरिग्रह चौवीस मेद, त्याग कियो मुनिराजने । तृष्णा भाव उच्छेद, घटती जान घटाइये || उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह चिंता ही दुख मानो । फांस तनकसी तनमें साले, चाह लंगोटीकी दुख भाले ॥ भाले न समता सुख कभी नर, विना मुनिमुद्रा धरे । धन नगन तन पर नगन ठाड़े, सुर असुर पायन परे ॥ घरमांहि तृष्णा जो घटावे, रुचि नहीं संसार से | बहुधन बुरा भला कहिये, लीन पर उपकारसे ॥ ९ ॥
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उत्तम ब्रह्मचर्य्य ।
जो परिहरेदि संगं महिलाणं णेव परसदे रूवं । कामकहादिणियतो वहा बंभं हवे तस्स ॥ १० ॥ अर्थात - जो स्त्रीजनोंका संग, उनके रूपादिका अवलोकन और काम कथा श्रवण तथा पूर्वरतानुस्मरण, मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना करके नहीं करता है उसके उत्तम ब्रह्मचर्य होता. है । सो ही आगे कहते हैं । ( स्वा० का ० अ.
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" ब्रह्मणि चरति इति ब्रह्मचर्य : " अर्थात् ब्रह्म-आत्मामें चरमण करना, सो ब्रह्मचर्य है। उत्तम विशेषण उसकी निर्दोषतांका सूचक है ।
यह ब्रह्मचर्य धर्म आत्माका ही स्वभाव है कारण कि जबतक