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श्रीदशलक्षण धर्म |
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བྦཏྟཏྟཱཡན ཝཱན སཡཱ།
अन्तरंग तप जिनका सम्बंध मात्र आत्मा के अन्तरंग भावों से है, जैसे प्रायश्चित्त (अपने दोपोंकी आलोचना, निंदा, गर्हा पूर्वक गुरुके निकट करके उचित दण्ड लेना ), विनय ( अपने से ज्ञानाचरण ·तपादिमें श्रेष्ठ गुरुजनोंकी प्रशंसा आदर करना, स्तुति तथा वन्दना "करना ); वैयावृत्य ( साधर्मी साधुजनोंकी सेवा करना ), स्वाध्याय ( शास्त्राभ्यास करना ), व्युत्सर्ग ( शरीरादि ममत्वका त्याग करना ), ध्यान ( चित्तको एकाग्र करके एक ज्ञेयपर लगा देना ) |
बाह्य तप वह है जो शरीरके आश्रित है, जैसे अनशन (स्वाद्य, खाद्य, लेह्य और पेय, इन चार प्रकारके आहारों का सर्वथा या कुछ दिवस, पक्ष, मासादिका नियम करके त्याग करना ), ऊनोदर • ( भूख से कम भोजन करना ), व्रतपरिसंख्यान ( भोजनको जाते समय कठिन और अचिन्त्य प्रतिज्ञा कर लेना ), रसपरित्याग ( रस त्यागकर भोजन करना ), विविक्तशय्यासन (निर्जन्तु प्रासुक भूमिपर अल्प काल एक करवट से शयन करना ), कायक्लेश ( शरीरको परीषह सहने योग्य बनानेके लिये आतापनादि योग धारण करना ।
तपके अभिलाषी जनोंको प्रथम ही ममत्त्रभाव छोड़ देना चाहिये क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभ, तृष्णा, आशा, मद, मत्सर, प्रमाद आदि कषायें, तपस्वीको तपसे भ्रष्ट कर देती हैं। जैसे कि दीपायन आदि. कितने ही मुनि क्रोधसे आप भी भस्म हुए और असंख्यात वा संहार करके कुग़तिमें गमन कर गये ।
वास्तव में शांति, क्षमा, संतोष, सहनशीलता, दृढ़ता 'यही तपस्वियोंका भूषण है। जैसे- स्वामी सुकुमाल, बाहुबली, पार्श्वनाथ,