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________________ उत्तम पत। M.NEMAAVATMAVanween romaanwarswnwwww MAMANITARA ही लगा रहता है, जिससे परमार्थ अर्थात् साध्यकी सुधि ही नहीं होने पाती। इसके सिवाय उनकी ख्याति करनेवाले भक्तजनोंमें तो प्रीति और निंदकोंमें द्वेष बढ़ जाता है तथा हिंसासे भरी हुई आरम्भ जनित सामग्री एकत्र करनेकी चिंता बढ़ती जाती है। जिससे अनंतानंत जीवोंकी हिंसादि अनेक प्रकारके अनर्थ उत्पन्न होकर तीव्र कर्मबंध होता और अन्तमें उनको दुर्गतिका मार्ग पकड़ना पड़ता है,. इसलिये ऐसी सावध अन्तरंग और बाह्य हिंसासे भरी हुई तपस्या करना व्यर्थ है । तपस्या निरारम्भ करना ही श्रेयस्कर है । यदि सपरिग्रह तपश्चरण किया जाय, तो उस तपको तप कहना ही अनुचित है, क्योंकि जहां निरन्तर परिग्रहकी तृप्णा, चाह और उसकी रक्षाकी चिंता लग रही है वहां तप कैसा ? वह तप भी नहीं और तपाभास भी नहीं, किन्तु केवल उपहास मात्र है, कारण परिग्रहके एकत्र करने, और उसकी रक्षा व वृद्धि करने में बहुतोंसे के धादि कषायें करना पड़ेगी, बहुतोंकी सेवा-सुश्रूषा करनी पड़ेगी, बहुतोंकी झूठी सच्ची प्रशंसा करनी पड़ेगी, किसीको भी अवसर पड़नेपर सत्योपदेश न दिया जा सकेगा, सदा भयभीत रहना पड़ेगा इत्यादि अनेक प्रकारकी बाधाएं होंगी और फिर गृहस्थ तथा तपस्वी में कुछ भी अंतर नहीं रह जायगा, सदा मायाचारी करनी पड़ेगी, दिखानेके लिये अपने दोषोंको ढंकना पड़ेगा, कामादिकी वृद्धि होजायगी । इत्यादि कारणोंसे सपरिग्रह तप नहीं होसकता है, इसलिये परिग्रह रहित ही. तप करना चाहिये। .. .। __ सच्चा तप दो प्रकारका है--- अन्तरंग और बाह्य.। .
SR No.009498
Book TitleDash Lakshan Dharm athwa Dash Dharm Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size6 MB
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