________________
५८] श्रीदशलक्षण धर्म । ___और विषयोंकी सामग्री, ख्याति, लाभ. पूजादि प्रयोजन तो घरमें रहकर भी किंचित् पुरुषार्थ करनेसे प्राप्त होसकते हैं, तव इसके ‘लिये इतना कष्ट उठ'ना व्यर्थ है। दूसरे विषयों की सामग्री व लौकिक ख्याति, लाभ, पूजादिक तो संसारमें अनन्तबार प्राप्त हुए ही हैं। यहांतक कि देवेन्द्र, नरेन्द्र आदिकको अट सम्पत्ति, ऐश्वर्य, रूप बलादिक भी बहुवार प्राप्त हुए हैं सो जब उनसे यह जीव तृप्त नहीं हुआ, तो अब क्वचित् कदाचित् तुझे मनोनुकूल कुछ सिद्धि हो भी गई, तो उससे कितने कालतक तृप्ति रहेगी ? ये वस्तुएं तो फिर भी नाश हो ही जायगी, जैसे पहिले अनन्त वार हो चुकी हैं। उस समय जो तूने उनको प्राप्तिके अर्थ घोर कायक्लेश सहन किया है, उसका चितवन होनेसे तुझे बहुत दुःखी होना पड़ेगा, इसलिये हे भव्य ! किसी भी प्रकारकी आशा व अभिलाषा न करके ही तपश्चरण करना चाहिये।
यदि सावद्य तप किया जाय, जैसा कि प्रायः बहुतसे आत्मज्ञानशून्य अज्ञानी पुरुष पंचाग्नि तपते हैं, कोई भस्म लपेटते हैं, कोई मस्तकपर शिला रखते हैं, कोई नख, केश आदि बढ़ाते हैं, कोई झाड़ आदिसे उलटे लटकते हैं, कोई नाक, कान, आदि फाड लेते हैं, कोई पृथ्वीमें शिर दवा लेते हैं, कोई कंटकासनपर सोते हैं, इत्यादि और भी अनेक प्रकारके अज्ञानी तप तपते हैं, वे सब व्यर्थ केवल संक्लेशता बढ़ानेवाले हैं। भले ही कदाचित् लोकमें इससे उनको कुछ ख्याति लाभ होजाय, परन्तु परमार्थ तो इसमें रंचमात्र भी नहीं सघता है । क्योंकि उनका चित्त तो निरन्तर स्वार्थ साधनमें