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उत्तम तप। -བཟཔན་ ་ ་ ་ ་ ་ ་་ ་་ ་ཉ་ད་ ་ ད་ཟ༩ཟཔསཝ་ ཟ་ཝཱས་ ༤་༠ देशभूषण, कुलभूपणादि ऋषियोंका तप, दृढ़ता व सहनशीलताके कारण सराहनीय है।
तात्पर्य-जबतक अंतरंग भावोंसे ममत्व दूर न हो, अर्थत् इच्छाओंका अभाव न हो. तबतक बाह्य तप केवल. कायक्लेश मात्र निरर्थक है। इसलिये शुद्धात्मस्वरूपकी प्राप्तिके अर्थ मन, वचन, कायसे इच्छानिरोध रूप लक्षणात्मक उत्तम तप धारण करना ही कर्तव्य है ।
जैसा कि कहते हैं कि यह तप देवोंको भी दुर्लभ है-- • तप चाहें सुरराय, कर्म शिखरको वज्र है ।
द्वादश विधि सुखदाय, क्यों न करे निज शक्ति सम ॥ उत्तम तप सब माहि बखाना, कर्म-शैलको वन समाना। बसो अनादि निगोद मंझारा, भू विकलत्रय पशु तन धारा ।। धारा मनुष तन महा दुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता। श्री जैनवाणी तत्वज्ञानी, भई विपय पयोगता ॥ अति महा दुर्लभ त्याग विषय, कपाय जे तप आदरें । नरभव अनूपम कनकघर पर, मणिमई कलशा धेरै ॥ ७ ॥
उत्तम त्याग। . जो चयदि मिट्ठभोज उवयरण रायदोससंजणयं। . : वसदि. ममत्तहेदुं चायगुणो हवे तस्स ॥ ८ ॥... . . :: :अर्थात्-जो विषयोत्पत्ति व वृद्धिका कारण मिष्ट पुष्ट गरिष्टः भोजन न करे, रागादि भावोंकी उत्पत्तिका कारण उपकरणादिको छोड़े.