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उत्तम संयम |
[ ५.१
( जिनेन्द्र ) भक्ति, विद्या ( ज्ञान विवेक ), सौजनता, इन्द्रियविजय, और दानमें रति होना ये १४ बातें संसारी जीवोंको उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं, यह विचार कर सदा उत्तम संयम धर्मको यथाशक्ति धारण करके सच्चे अविनाशी सुखको प्राप्त करना चाहिये ।
यह संयम धर्म इन्द्रियोंके रोकने पर होता है। और इन्द्रियोंको विषयों से रोकनेका सहज उपाय यह है कि संसार, देह, भोगके स्वरूपका विचार करना, अर्थात् अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आश्रय, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म इन द्वादशानुप्रेक्षाओं का इस प्रकार चितवन करना कि—
विश्व में जो वस्तु उपजत नाश तिनका होयगा । तू त्याग नहि अनित्य लखकर नहीं पीछे रोयगा ॥ १ ॥ देव इन्द्र नरेन्द्र खगपति तथा पशुगति जानिये | आयु अंते मरें सब ही शरण किसकी ठानिये ||२|| पिता मरकर पुत्र हो अरु पुत्र मर आता सही । परिवर्तरूपी जगतमें बहु स्वांग धारत जीव ही ॥३॥ स्वर्ग नर्क हि एक जावे दुख सुःख भोगे एक ही ।.. कर्म - फल शुभ अशुभ जेते अन्यको वाटें नहीं ॥४॥ काय जब अपनी न होवे सेव जिहिं नित ठानिये । . तो अन्य वस्तु प्रत्यक्ष पर है अपनी कैसे मानिये ॥५॥ मलमूत्र आदि पुरीष जामें हाड़ मांस सु. जानिये ।
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देह सुचाम लिपटी महां अशुचि वखानिये ॥६॥ -
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