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५०] श्रीदशलक्षण धर्म । rལཔའ པཨ་ ཨ་ དདདད དཔད དཔད དན ་་་་、 དབ ་ ནན་ ད མནན་ "राग उदै जग अन्ध भयो सहजहि सब लोगन लाज गमाई। सीख विना सब सीखत हैं विपयानके सेवनकी चतुराई ॥ तापर और रचे रसकाव्य कहा कहिये तिनकी निद्वराई । अन्ध असूझनकी अंखियानमें झोंकत हैं रज रामदुहाई॥१॥".
तात्पर्य - विषय कपाय तो अनादिसे ही जीवको लग रहे हैं जिनके कारण वे चतुर्गतियोंमें दुःख भोगते हैं। इसलिये इनके सेवनका उपदेश देना व्यर्थ है । वास्तवमें आवश्यकता तो है इन विषयोंके छोड़ने और उपदेश द्वारा अन्यको इनसे विरक्त कराकर छुड़ानकी तथा सन्मार्गमें लगानेकी । कारण, कि यदि यह अपूर्व और दुर्लभ अवसर हाथसे निकल गया, अर्थात् मनुष्य जन्म विषयोंमें बीत गया. तो फिर अनन्त भवोंमें भी इसका पाना दुर्लभ है। जैसे-समुद्र में गिरी हुई राईका दाना फिर हाथ आना कठिन है और यह उत्तम संयम सिवाय मनुष्य-जन्मके अन्य देव, नरक, पशु आदि गतियोंमें नहीं हो सकता, इसलिये यदि अवसर पर चूके, तो पछतावा मात्र रह जायगा । जैसे कोई अज्ञानी पुरुष चिन्तामणिको पाकर काग उहानमें फेंककर पीछे पछताता है । इसलिये ऐसा समझकर कि:
" मानुष्यं वरवंशजन्मविभवों दीर्घायुरारोग्यता। सन्मित्रं सुसुतः सती प्रियतमा भक्तिश्च नारायणे । विद्वत्वं सुजनत्वमिन्द्रियजयः सत्पात्रदाने रतिः ।
ते पुण्येन विना चतुर्दशगुणा: संसारिणां दुर्लभाः॥"
अर्थात्-मनुष्यत्व, उत्तमकुलमें जन्म होना, विभवे, सम्पत्ति, दीर्घ आयु, आरोग्य शरीर, उत्तम संगति, सुपुत्र, संती स्त्री, प्रभु