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श्रीदशलक्षण धर्म ।
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मन वचन काय त्रियोग द्वारा भाव चंचल होरहे | तिनसे जु द्रव्य अरु भाव आस्रव होय मुनिवर यों कहे ॥७॥ योगका चंचलपना रोके जु चतुर चनायके | तब कर्म आवत रुकें निश्चय यह सुनो मन लायके ॥८॥ व्रत समिति पंचरु गुप्ति तीनों धर्म दश उर धारके । तप तपें द्वादश सहें परिषह कर्म डारें जारके ||९| यह लोक मनुजाकर तीनों ऊर्ध्व मथ पाताल है 1 तिनमें सुजीव अनादिसे भटके हुवा बेहाल है ॥१०॥ कल्पतरु अरु कामधेनू रत्न चिन्तामणि सही | जांचे विना फल देत नाहीं धर्म दे विन इंच्छही ॥ ११ ॥ संसार में सब सुलभ जानो द्रव्य या पदवी सही । इक ‘“दीपचन्द्र” अनन्तभबमें बोधिदुर्लभ है यही ॥१२॥ इत्यादि चितवन करने से संयम भाव दृढ़ रहते हैं ।
यह संयम दो प्रकारका है - इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम । बाह्य इन्द्रियोंको विषयसेवन से रोकना और अंतरंग आत्मासे विषयोंकी इच्छाको दूर कर देना सो इन्द्रियसंयम है और षट्कायके जीवोंकी - रक्षारूप दया पालना सो प्राणिसंयम है । वास्तवमें अन्तरंग संयम के विना बाह्य संयम कार्यकारी नहीं होता है । जैसे ऊपरसे किसी प्रका-रका त्याग कर दिया, या उपवासादि कर लिया और अन्तरङ्ग विषय - कषाय कैसी ही बनी रहीं, तो उससे कुछ लाभ नहीं होता । कहा है" कपायविपयाहारो, त्यागो यंत्र विधीयते ।-
P उपवासो स विज्ञेयः, शेष- लंघनकं विदुः ॥१॥ ".