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उत्तम संयम |
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परन्तु जबतक इन्द्रियोंकी चंचलता बनी रहती है अर्थात् जबतक वे विषयोंकी ओर लगी रहती हैं, अर्थात् इन्द्रियां विपयको चाहती व भोगती रहती हैं तबतक स्वरूपका अनुभव नहीं होता -इसलिये इन्द्रियोंको विषयोंसे रोकना ही उत्तम संयमको प्राप्त होना अर्थात् स्वभावकी प्राप्ति होना है और यही आत्माका धर्म है, इसलिये संयम धर्म आत्माका है और सुखाभिलाषी जीवोंको इसे अवश्य ही धारण करना चाहिये ।
प्रायः संसारी जीवोंको विपयसेवन करनेमें ही आनन्दानुभव होता है और इसलिये उन्होंने अपना यह सिद्धांत निकाल रखा है कि" यावज्जीवेत सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः ॥ १ ॥
अर्थात- जबतक जीना सुखपूर्वक - इन्द्रियभोग भोगते हुए जीना चाहे कर्ज भी क्यों न करना पड़े, तो भी चिन्ता नहीं करना और ऋण लेकर भी घी पीना, क्योंकि शरीर के भस्मीभूत होजानेपर 'फिर आवागमन कैसा ? अंग्रेजी में कहते हैं:
Eat, drink and be merry.
अर्थात – खावो, पीवो और मजा उड़ावो, परन्तु उनका यह विचार ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा विचार वे ही अज्ञानी, नास्तिक मती करते हैं, जो आत्माका अस्तित्व व आवागमन और परलोक नहीं मानते और यदि ऐसा भी माने तो ये विषय सामग्रियां इच्छानुसार प्राप्त ही कहां होती है ? अथवा कदाचित् कर्मयोगसे थोड़ी . बहुत मिलती भी है, तो निरन्तर चाह बढ़ती ही जाती है, "जिससे
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