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४८] श्रीदशलक्षण धर्म । कभी तृप्ति नहीं होती । जैसे कि अग्निमें ज्यों ज्यों ईधन डाला जाता है त्यों त्यों वह और प्रज्वलित होती है तैसे ही विषयोंको सेवन करते हुए निरंतर चह बढ़ती ही जाती है। अथवा जैसे खाजको खुजानेसे यद्यपि प्रथम मुख जैसा मालूम होता है, परन्तु पीछे और भी अधिक वेदना बढ़ जाती है और खुजानेकी लालसा भी कम नहीं होती वैसे ही विषयभोग पहिले तो सेवन करते हुए अच्छेसे लगते हैं, परन्तु अन्तमें फल भोगते हुए दुःखदायी होकर परिणमते हैं।
इन्हींके कारण कई आदमी आतशक, सुनाक आदिको वीमारियोंसे पीड़ित देखे जाते हैं। विषयी जीवोंके हाथ पांच शिथिल हो जाते हैं, आंखे अंदर गुस जाती और दृष्टि मंद पड़ जाती है, शरीरकी कांति बिगड़ जाती है, कानोंसे कम सुनाई देने लगता है, नाकसे श्लेष्म वहा करता है, मुँहसे लार टपकने लगती है, शरीरकी सब हड्डी पसली दिखने लग जाती हैं, रक्त, मांस, वीर्यादि सब सूख जाते हैं, द्रव्य नाश होजाता है, लोकसे प्रतीति उठ जाती है, सब लोग उनसे घृणा करने लगजाते हैं, यहांतक कि उनको मक्खियां उड़ाते हुए घरोघर भीख मांगने पर भी खानेको दाने नहीं मिलते हैं।
. "यौवन था तब रूप था, ग्राहक थे सब कोय । .. यौवन रूप गयो जबै, बात न पूछे कोय॥१॥".
विषयोंका सुख क्षणभंगुर है । फिर भी यदि विषयोंमें कदाचित् क्षणस्थायी सुख समझा जाय तो भी असंगत है। कारण, एक जीव जिस पदार्थको भला मानता है दूसरा उसीको बुरा समझता है, तक