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श्रीदशलक्षण धर्म ।
है । उत्तम शब्द विशेषण है, अर्थात् किसी भी प्रकार के छल कपट वा ख्याति लाभादिकी इच्छाके विना भले प्रकारसे इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे रोकना अर्थात् विषयोंका सेवन नहीं करना जिससे कि प्राण - रक्षा हो सके सो उत्तम संयम है ।
यह संयम धर्म आत्माका स्वभाव है और ये इन्द्रियां नड़ हैं नड़ जो नामकर्मके उदयसे प्राप्त हुई हैं, और इनके विषय भी जड़ हैं जो उदयजनित अन्तरायकर्मके क्षयोपशमसे कर्मानुसार प्राप्त होते हैं, और इनको भोगनेवाला भी जड़ शरीर ही है तथा जीव चैतन्य स्वभाववाला · दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्यादि अनन्त गुणोंका आधार स्वरूप शुद्ध चेतना मात्र है | वह इन कर्मजनित उपाधियोंसे भिन्न है और जो सदा अपने ही दर्शन ज्ञानमयी स्वरूपमें रमण करनेवाला है । सो वह इस जड़ शरीर के साथ विषयोंकी इच्छासे अपने अपने वास्तविक स्वरूपको भूला हुआ, अनादि काल्से संसार में सुर, नर, नरक और पशुगति सम्बन्धी चौरासी लक्ष योनियोंके १९९॥ लक्ष कोटि कुलोंमें भटकता · अर्थात् जन्म मरण करता और दुःख भोगता रहता है, परन्तु जिस- समय वह अपने स्वरूपको विचारता है, तब ही शरीरादि समस्त जड़ • पदार्थोंसे भिन्न अपने ही भीतर आप ही अपने एक ज्ञायकस्वरूप शुद्ध - परमात्मा को देखता है और इन्द्रियोंके विषयों को कर्मकृत उपाधि समझकर उनसे अपना मुँह मोड़ लेता है, अर्थात् उन्हें छोड़ देता है,
- तब ही यह अपने सच्चे ज्ञायक स्वरूपका लाभ करके स्वानुभवरूपी - सुखमें मग्न हुआ परम वीतराग अवस्थाको प्राप्त होता है, और तत्र ही - सच्चा सुखी कहा जाता है ।