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उत्तम संयम । ४५ करना और बाह्य शरीरादिकी शुद्धि करना यही उत्तम शौचधर्म सब जीवोंको उपादेय है। कहा है कि
धार हृदय संतोप. करहि तपस्या देहसों । शौच सदा निर्दोप, सुख पावे प्राणी सदा ।। उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोभपापका बाप बखाना। आशा फांस महा दुखदानी, सुख पावे संतोपी प्राणी ॥ प्राणी सदाशुचिशील, जप, तप, ज्ञान, ध्यान, प्रभावतें। नित गंग, यमुन समुद्र न्हाये अशुचि दोष स्वभावतें ॥ ऊपर अमल मद भरो भीतर कौन विधि घट शुचि कहे। बहु देह मैली सुगुण थैली शौच गुण साधु लहे ॥५॥
उत्तम संयम। जो जीव रक्खणपरो, गमणागमणादिसव्वकम्मेसु । तण छेदपि ण इच्छदि संयम भावो हवे तस्स ॥ ६॥
अर्थात्-जो गमनागमनादि समस्त क्रिया कर्मों में भी तृण (हरितकाय स्थावरजीव) तक छेदना नहीं चाहते, इस प्रकार जीवोंकी रक्षामें तत्पर (सावधान) रहते हैं तथा अपनी इन्द्रियोंको विषयोंसे रोकते हैं ताकि उनके निमित्तसे किसी भी प्राणीके द्रव्य व भावप्राणोंका घात न हो, और न उनके आश्रय अपने कर्मास्रव हो, उनके 'उत्तम शौच धर्म होता है। स्वा० का० अ० ) और भी कहते है
: " ... "इन्द्रियनिरोधः संयमः ॥ इन्द्रियोंको विषयोंसे रोकनासो संयम