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श्रीदशलक्षण धर्म |
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किसीसे मांगते नहीं हैं और ज्यों ही उन्होंने किसीसे कुछ मांगा कि उसी समय वे लोगोंकी दृष्टिसे उतर जाते हैं । लोभी पुरुष चाहे जहां -नीच उच्च सबके साम्हने, दीन होता है । लज्जा तो उससे कोसों दूर चली जाती है । वह शीत, उष्ण, भूख, प्यास, सब कुछ सहता है, स्त्री पुत्रोंसे विलग होजाता है, सब लोगोंका निष्कारण वैरी बन जाता है, देश विदेशों में भटकता रहता है, भक्षाभक्ष खाता है । वह न कभी पेटभर अनाज खाता है और न तनभर कपड़े पहिनता है, किन्तु निरंतर सम्पत्ति जोड़ता जोड़ता मर जाता है । वह आप तो खर्चना जानता ही नहीं, परन्तु औरोंको भी खर्चते देखकर घबरा जाता है । जैसा कहा है
" नारी पूछे सूमकी, काहे चदन मलीन ? | क्या तुम्हरो कुछ गिर गयो ? या काहूको दीन १ ॥१॥ सुम कहे नारी सूनो गिरो न मैं कुछ दीन ।
देतन देखो औरको, तासों वदन मलीन ||२|| इत्यादि । यद्यपि संसारके सभी प्राणी यह प्रत्यक्ष देखते हैं कि जब मनुष्य उत्पन्न हुआ था तब नग्न ही था और जब मरता है, तब भी नग्न ही मरेगा और यह सब परिग्रह यहीं पड़ा रह जायगा, एक तागा भी साथ नहीं जायगा, जैसा कि कहा है
" आये कुछ लाये नहीं; गये न कुछ लेजायँ । बिच पायो बिच ही नश्यो, चिंता करे बलाय ॥" तात्पर्य - तृष्णा किस वस्तुकी ? यह सब तो कर्मकृत उपाधि है
इसलिये ऐसे लोभ तथा तृष्णादिसे. अपने अन्तरंग आत्माको रहित