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श्रीदशलक्षण धर्म । ____ व्यवहार शौच, बाह्य शुद्धिको कहते हैं--अर्थत् देह, गेह, वसन, भूषण आदिकी शुद्धताको शौच कहते हैं, परन्तु अंतरंग शुद्धि विना यह बाह्य शुद्धि विशेष प्रयोजनीय नहीं होती। वह बाह्य शुद्धि तो केवल उस मद्यसे भरे हुए घड़ेके समान है कि जो बाहिरसे तो साफ सुथरा है परन्तु भीतर मद्यसे मलिन होरहा है। अर्थात् जिस घड़े शराब भरी है, उस घड़ेको बाहिरसे खूब मलमलकर धोनेपर भी . उसकी दुर्गधि कभी दूर नहीं हो सक्ती ।
___ इसी प्रकार यह शरीर जो रज ( माताके रुधिर ) और वीर्य (पिताके शुक्र) का पिंडरूप मल, भूत्र, रुधिर, पीव, मांस, मज्जा आदिका घृणित थैला है सो नाना प्रकारके सुगन्धित पदार्थोंसे धोनेपर भी कभी शुद्ध नहीं होता किंतु उल्टे इसके स्पर्शमात्रसे संपूर्ण शुद्ध व सुगन्धित पदार्थ भी दुर्गधित व घृणित होजाते हैं । देखो, निरंतर इस शरीरसे आंख, नाक, कान, मुँह, गुदा, योनि, लिंग आदि द्वारों से दुर्गधित पदार्थ (मल) ही झड़ता रहता है । यह अपने संबंधसे केशर, कस्तूरी, कपूर आदि पदार्थोंको भी अल्पकालमें ही मलरूप कर डालता है। ऐसा दुर्गधित घृणित महा-अपवित्र शरीर जलादिकसे धोनेपर कैसे पवित्र हो सकता है ? कदापि नहीं, कदापि नहीं । यह सदा मैला है, क्योंकि यह स्वभावसे अपवित्र है।
इसलिये ऐसे मैले अपवित्र शरीरको धो पोंछ करके शुद्ध मान लेना नितान्त भूल है । इसलिये साधुजन, जिन्होंने अपने अखण्ड सच्चिदानन्द स्वरूप परम शुद्धात्माको इस शरीरसे सर्वथा भिन्न जान: कर इसे छोड़ रक्खा है, वे इसकी कुछ भी अपेक्षा न करके अपने