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उत्तम शौच ।
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अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुखमयी चैतन्य स्वरूप आत्मामें ही मग्न रहते हैं । वे इस घृणित शरीरके संस्कार करनेमें अपना समय व्यर्थ नहीं बिताते क्योंकि वे जानते हैं कि प्रथम तो यह शरीर अपवित्र है सो तो कदापि शुद्ध हो ही नहीं सकता जैसे कि कोयला दूधसे धोनेपर. भी कभी सफेद नहीं होता । दूसरे यह आयु-कर्मके आधीन होनेसे अस्थिर है । तीसरे बुढ़ापा और रोगोंसे भरा हुवा तथा जड़ अर्थात् अचेतन है, अनेक प्रकारसे सुरक्षित रखनेपर भी सुरक्षित नहीं रह सकता और न कभी साथ ही देता है । किसी कविन कहा है(प्रश्नोत्तर, चंतन और कायका ।) 'चंतन-सोलह श्रृंगार विलेपन भूपणसे निशिवासर तोहि सम्हारे,
पुष्टि करी बहु भोजनपान दे धर्म अरु कर्म सवै ही विसारे। सेये मिथ्यात्व अन्याय करे बहुते तुझ कारण जीव संहारे,
भक्ष गिनो न अभक्ष गिनों अब तो चल संगतू काय हमारे॥१ काय--ये अनहोनी कहो क्या चेतन भांग खाय कै भये मतवारे,
संग गई न चलूं अब हूँ लखि ये तो स्वभाव अनादि हमारे। इन्द्र नरेन्द्र धनेन्द्रनके नहिं संग गई तुम कौन विचारे, कोटि उपाय करो तुम चेतन तो हू चलू नहिं संग तुम्हारे ॥२॥
तात्पर्य-जड़ और चेतन ये दोनों परस्पर विरोधी हैं, तब अनमेलका मेल कैसा : ऐसा समझकर वे इसकी कुछ भी अपेक्षा न करके सोचते हैं
यावन्न ग्रस्यते रोगैः यावन्नाभ्येति ते जरा । - यांवन्न क्षीयते चायुस्तावत् कल्याणमाचर ॥ . . .