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पेखे तिहायत पुरुष, सांचेको दरब सब दीजिये । मुनिराज श्रावककी प्रतिष्ठा, सांच गुन लख लीजिये || ३ ॥ ऊँचे सिंहासन बैठी वसु, नृप धर्मका भूपति भया । वसु झठसेती नर्क पहुंचा, स्वर्गमें/ में नारद गया ॥ ४ ॥
सत्यमेव सदा जति
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उत्तम शौच ।
उत्तम शाच।
सम संतोष जलेण य जो धोवदि तिन्ह लोहमल भोयणगिद्धिविहिणो तस्सु सुचित्तं हवे विमलं ॥
अर्थात् - जो समता अर्थात् संतोषरूपी जलसे तृष्णा (लोभ) रूपी महा मलको धोते हैं, यहांतक कि भोजनमें भी जिनको गृद्धता अर्थात् ती लालसा ( चाहना ) नहीं होती, उसीके उत्तम शौच धर्म कहा जाता है । (स्वा० का ० अ० ) और भी कहते हैं—
शुर्भावः इति शौचः - अर्थात् भावोंकी शुद्धिका होना सो ही शुद्धता अर्थात् शौच है । उत्तम विशेषण है, जो कि किंचिन्मात्र भी मलीनता के अभावका सूचक है । वास्तव में यह शौचधर्म आत्माका ही स्वभाव है कारण कि शौच धर्म अन्तरङ्ग आत्मासे लोभादि कषायके अलग हो जानेपर ही प्रगट होता है । लोभादि कषायें पर पदार्थों की चाह रूप प्राप्तिकी इच्छा से उत्पन्न होती हैं, इसलिये ये परभाव हैं । सो इन परभावों के अभाव होनेपर जो आत्माका स्वभाव प्रगट होना सो निश्चय शौच धर्म है ।